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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

'हलीम' उवाच
योनि और एक जोड़ा स्तन भर नहीं है नारी!
महिलाओं के प्रति अपराध वाली स्थिति बनी कैसे?हमारे मीडिया, सिनेमा, टी.वी. बाज़ार, उद्योग और यहाँ तक कि शिक्षण संस्थानों ने उसे एक 'वस्तु' बना रखा है जिसे दिखाकर अपना व्यापार बढ़ाया जा सकता है, लोगों को आकर्षित किया जा सकता है। और खुद महिलाओं में खुद को अच्छा दिखाने, सजने की होड़ मच गई।दिखाने का चलन ऐसा बढा कि बात कपड़ों तक आ गई। शादी से पहले पुरूष संसर्ग फैशन बन गया। आज ऐसी लड़कियाँ गिनती की हैं जिनके पास BOYFRIENDS नहीं हैं। इस सबका असर तो मस्तिष्क और सोच पर पड़ना ही था क्योंकि आदमी की फितरत ही ऐसी है कि अच्छी बात भले देर में सीखे परHARMFULL चीज़ें जल्दी सीख लेता है।

और MENTALITY की बात तो ऐसी है कि यह कोई अंडरवियर नहीं कि एक उतारा दूसरा पहन लिया। ज़माने लग जाते हैं इस काम में। आप देखिए क्या आज़ादी के 65 सालों में हम लड़की को लड़के से कम समझने, छुआछूत मानने, विधवा को अपशकुन मानने,
अंग्रजों के पिछलग्गू बनने, गरीब को छोटा और अमीर को बड़ा समझने की सोच को बदल पाए हैं? ईमानदारी से सोचो। अरे हम जिन पश्चिमी देशों की नकल करते हैं ये बातें तो वहाँ बिलकुल नहीं होतीं वहाँ सब बराबर हैं। वहाँ इतने बलात्कार नहीं होते क्योंकि वहाँ की जलवायु ठंडी है, वो लोग हमारी तरह तामसी और मसालेदार भोजन नहीं करते। फिर हम वो सारे COSTOMS कैसे अपना सकते हैं। हमें अपनी संस्कृति(जो हमारी पहचान थी) को भूलने की सजा मिल रही है, हमने मर्यादाएँ तोड़ दी हैं जिन्हें बनाने इस बार कोई राम नहीं आने वाला। हमें(अभिभावकों को भी)सभ्यता और आधुनिकता को परिभाषित करना होगा तभी इन सारी बातों का अर्थ पूर्ण होगा।

सोमवार, 26 नवंबर 2012

'हलीम' उवाच


कभी हथेली की सूजन कभी बड़ा सा जेब खर्च,
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबूजी।
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्मा की सारी सज-धज, सब जेवर थे बाबूजी।

(पापा की 13वीं बरसी पर श्रद्धांजलि)
'हलीम' उवाच

धौंकनी सी बची उनकी छाती,
थाली में चुटकी भर नमक, और एक हरी मिर्च थीं उनकी ऑंखें।
कभी आग के फूल की तरह खिले थे पिता,
और उस दिन आग की नदी में नहा रहे थे।
(आज पापा की 13वीं बरसी पर उनकी याद जो व्यथित कर रही है) 

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

हिंदी दिवस पर विशेष

'हलीम' उवाच



हिन्दी दिवस







राम प्रसाद विस्मिल की दो ग़ज़लें:
न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना ।
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना ।

करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख ।
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना ।

लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखुं हिन्दी ।
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना ।


भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की ।
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना ।

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन ।
करुं में प्रान तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना ।

नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ।।







सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।









संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?








अमीर खुसरो :

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर ।

जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।

मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।

खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।










प्यारे लाल शौकी:
जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ ।
जिन इश्क में सर ना दिया, सो जग जिया तो क्या हुआ ।।

ताबीज औ तूमार में सारी उमर जाया किसी,
सीखे मगर हीले घने, मुल्ला हुआ तो क्या हुआ ।

जोगी न जंगम से बड़ा, रंग लाल कपड़े पहन के,
वाकिफ़ नहीं इस हाल से कपड़ रँगा तो क्या हुआ ।

जिउ में नहीं पी का दरद, बैठा मशायख होय कर,
मन का रहत फिरता नहीं सुमिरन किया तो क्या हुआ ।

जब इश्क के दरियाव में, होता नहीं गरकाब ते,
गंगा, बनारस, द्वारका पनघट फिरा तो क्या हुआ ।

मारम जगत को छोड़कर, दिल तन से ते खिलवत पकड़,
शोकी पियारेलाल बिन, सबसे मिला तो क्या हुआ ।










मनोहर साग़र पालमपुरी
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है

हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है

भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है

चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है

कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है

नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है

आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है

साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है

खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है.














दुष्यन्त कुमार :

तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा

पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा

लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा

माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा








द्विजेंन्द्र द्विज :
अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते

तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते















देवी नांगरानी:
गिरा हूँ मुंह के बल, ज़ख़्मी हुआ हूँ
लगा कर झूठ के पर जब उड़ा हूँ

गंवा कर होश आता जोश में जब
मैं जीती बाज़ियाँ तब हारता हूँ

मुझे पहुँचायेंगी साहिल पे मौजें
मैं तूफानों में घिरकर सोचता हूँ

मिलन का मुंतज़र हूँ मौत आजा
मुझे जीना था उतना जी लिया हूँ

उधर देखा नहीं आँखें उठाकर
नज़र से जब किसी की मैं गिरा हूँ

लगाईं तोहमतें बहरों ने मुझ पर
वो समझे बेज़ुबाँ मैं हो गया हूँ

रही हर आँख नम महफ़िल में 'देवी'
मैं बनकर दर्द हर दिल में बसा हूँ.














सतपाल ख्याल:
कुछ तो है कुछ तो है हौसला कुछ तो है
अपने दिल में अभी तक बचा कुछ तो है.

मैकदों मस्जिदों में नहीं मिल रहा
वो सकूं या खुशी या नशा कुछ तो है.

दिल के जो पास था जिस से उम्मीद थी
अब वही दिलनशीं दे दग़ा कुछ तो है.

कोंपलों से भरी झील है उस तरफ़
उस तरफ़ दूर तक नूर सा कुछ तो है.
'हलीम' उवाच




दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर विशेष















आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज पहली सितम्बर को हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि तथा हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल विधा के संस्थापक दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर उनको स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनके कालजयी ग़ज़ल संग्रह साये में धूप की भूमिका, जिसमें उन्होंने अपनी हिन्दी ग़ज़लों की भाषा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं.


मैं स्वीकार करता हूँ…
—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.

—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है.

—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ.

—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है. हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है. परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे संकोच तो है,पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारण यह है कि पत्र—पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म—विश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.

…और कमलेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह सिलसिला यहाँ तक न आ पाता. मैं तो—

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,

कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए.
—दुष्यन्त कुमार

और अब प्रस्तुत हैं उनकी पाँच ग़ज़लें :






कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये






ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा*

यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा






हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब






मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।





हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।





शनिवार, 28 अप्रैल 2012

'हलीम' उवाच




जीवन में दुःख का भार लिए फिरता हूँ,
मैं भव मौजों में मग्न रहा करता हूँ.

जगती के सुख को छोड़ श्रांत निर्जन में,
मैं सावन में मधुमास लिए फिरता हूँ.

जला ह्रदय में अग्नि दहा करता हूँ,
मैं साँसों में अंगार लिए फिरता हूँ.

निज शोक तनिक भी व्हिवल न कर पाए मन को,
मन में यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ.

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ.

-हलीम (बच्चन साहब से प्रेरित)

सोमवार, 23 अप्रैल 2012




                                         आह

दूर तलक घनघोर सन्नाटा,
फैला काली रातों में.
सूरज आग उगलता, अग्नि
सी भर देता सांसों में.
पहले हवा जो छूकर तुझसे
खुशबू हुस्न की थी लाती,
अब सब कुछ बेज़ार लगे है
ऐसी उदासी है छाई.

 




आह बनी गीतों की माला,
आँसू मेरे शब्द बने.
और भी कुछ चाहो तो बोलो,
क्यों रहते हो मौन सखे.
सौंप के सब कुछ अपना तुझको
मैं ऐसा कंगाल हुआ;
घर छूटा सब यार भी छूटे,
प्यार मेरा बदनाम हुआ.

आ बैठो सुनने इक दिन
तुम भी मेरी कराहों को.
मेरी न मानो चाहे यारों
तुम भी चख कर देखो तो.
प्रेम जिसे कहती है दुनिया,
मस्त वो ऐसी हाला है;
रोता पीने वाला फिर भी
जग इसमें मतवाला है.

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
504, एच. आई. जी. रतन लाल नगर,
कानपुर. मो. 09450505825
haleem.nishedh@gmail.com

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

'हलीम' उवाच



 आतंकवाद की तस्वीर

फिर कोई रात कहीं पर, सुलग जाए तो क्या,
ढेर लाशों के भी आज फिर से लग जाएँ तो क्या।
ऐसी सूरत का है कौन आज ये मुल्जिम कहिए।

आज हर एक तबीयत है बीमार यहाँ,
हर घड़ी में है दहशतों का बदखुमार यहाँ।
कोई इस मर्ज का माकूल तसफिया करिए।

वो जो पहलू में छुपा लाता है खंजर अपने,
हम मोहब्बत ही रहे पाले हैं अन्दर अपने।
कुछ तो ज़ख्मों का सिला उसको भी देकर रहिए।

अपने गुलशन को मिटाने में हैं कुछ फूल इसके,
घर उन्होंने ही जलाया है जो थे शम्मां उसके।
ऐसे मनहूस चिरागों को बुझाकर रखिए।


-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

'हलीम' उवाच

आतंकवाद की तस्वीर

फिर कोई रात कहीं पर, सुलग जाए तो क्या,
ढेर लाशों के भी आज फिर से लग जाएँ तो क्या।
ऐसी सूरत का है कौन आज ये मुल्जिम कहिए।

आज हर एक तबीयत है बीमार यहाँ,
हर घड़ी में है दहशतों का बदखुमार यहाँ।
कोई इस मर्ज का माकूल तसफिया करिए।

वो जो पहलू में छुपा लाता है खंजर अपने,
हम मोहब्बत ही रहे पाले हैं अन्दर अपने।
कुछ तो ज़ख्मों का सिला उसको भी देकर रहिए।

अपने गुलशन को मिटाने में हैं कुछ फूल इसके,
घर उन्होंने ही जलाया है जो थे शम्मां उसके।
ऐसे मनहूस चिरागों को बुझाकर रखिए।


-निषेध कुमार कटियार 'हलीम' 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

'हलीम' उवाच

आओ तुम्हें  प्यार करना सिखा दूँ,
अपने लबों को लबों पे सजा दूँ.
 
करो ग़म न कोई न बैठो परेशां,
मानोगी तुम गर तुम्हे फिर हंसा दूँ.
 
छुपाती हो दिल की उल्फत मुझी से,
कर दो बयां कहो मैं सुना दूँ.
 
कभी आ के बैठो पहलू  में मेरे,
दौलत मोहब्बत की तुम पर लुटा दूँ.

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
9450505825, 
haleem.nishedh@gmail.com, www.haleem-haleem.blogspot.com
कानपुर

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

'हलीम' उवाच

छंद के अंग

छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं -
  • गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं।
  • यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं।
  • तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।
  • गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)।
गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा । सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ छन्दशास्त्र के दग्धाक्षर हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ) ।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
। ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
गण चिह्न उदाहरण प्रभाव
यगण ( य ) ।ऽऽ नहाना शुभ्
मगण ( मा ) ऽऽऽ आजादी शुभ्
तगण ( ता ) ऽऽ। चालाक अशुभ्
रगण ( रा ) ऽ।ऽ पालना अशुभ्
जगण ( ज ) ।ऽ। करील अशुभ्
भगण ( भा ) ऽ।। बादल शुभ्
नगण ( न ) ।।। कमल शुभ्
सगण ( स ) ।।ऽ कमला अशुभ

छंद के प्रकार

  • मुक्त छंदː भक्तिकाल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं।
  • मुक्त छंद का उदाहरण -
वह आता
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता,
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।

काव्य में छंद का महत्त्व

  • छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
  • छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
  • छंद में स्थायित्व होता है।
  • छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
  • छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं।
उदाहरण -
भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।

छंदों के कुछ प्रकार

दोहा

दोहा मात्रिक छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
मुरली वाले मोहना, मुरली नेक बजाय।
तेरो मुरली मन हरो, घर अँगना न सुहाय॥

रोला

रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै। पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥

सोरठा

सोरठा मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन। करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥

कुण्डलिया

कुण्डलिया मात्रिक छंद है। दो दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

'हलीम' उवाच
 

रस परिचय

भरतमुनि (2-3 शती ई.) ने काव्य के आवश्यक तत्व के रूप में रस की प्रतिष्ठा करते हुए श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, बीभत्स तथा भयानक नाम से उसके आठ भेदों का स्पष्ट उल्लेख किया है तथा कतिपय पंक्तियों के आधार पर विद्वानों की कल्पना है कि उन्होंने शांत नामक नवें रस को भी स्वीकृति दी है। इन्हीं नौ रसों की संज्ञा है नवरस। विभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग से इन रसों की निष्पत्ति होती है। प्रत्येक रस का स्थायीभाव अलग-अलग निश्चित है। उसी की विभावादि संयोग से परिपूर्ण होनेवाली निर्विघ्न-प्रतीति-ग्राह्य अवस्था रस कहलाती है। श्रृंगार का स्थायी रति, हास्य का हास, रौद्र का क्रोध, करुण का शोक, वीर का उत्साह, अद्भुत का विस्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का भय तथा शांत का स्थायी शम या निर्वेद कहलाता है। भरत ने आठ रसों के देवता क्रमश: विष्णु, प्रमथ, रुद्र, यमराज, इंद्र, ब्रह्मा, महाकाल तथा कालदेव को माना है। शांत रस के देवता नारायण, और उसका वर्ण कुंदेटु बताया जाता है। प्रथम आठ रसों के क्रमश: श्याम, सित, रक्त, कपोत, गौर, पीत, नील तथा कृष्ण वर्ण माने गए हैं।
रस के प्रकार
रस 9 प्रकार के होते हैं -
क्रमांक रस का प्रकार स्थायी भाव
1. श्रृंगार रस रति
2. हास्य रस हास
3. करुण रस शोक
4. रौद्र रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयानक रस भय
7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
8. अद्भुत रस आश्चर्य
9. शांत रस निर्वेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवम् भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं।

स्थायी भाव

सहृदय के अंत:करण में जो मनोविकार वासना या संस्कार रूप में सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें कोई भी विरोधी या अविरोधी दबा नहीं सकता, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं।
ये मानव मन में बीज रूप में, चिरकाल तक अचंचल होकर निवास करते हैं। ये संस्कार या भावना के द्योतक हैं। ये सभी मनुष्यों में उसी प्रकार छिपे रहते हैं जैसे मिट्टी में गंध अविच्छिन्न रूप में समाई रहती है। ये इतने समर्थ होते हैं कि अन्य भावों को अपने में विलीन कर लेते हैं।
इनकी संख्या 11 है - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, वात्सल्य और ईश्वर विषयक प्रेम।

विभाव

विभाव का अर्थ है कारण। ये स्थायी भावों का विभावन करते हैं, उन्हें आस्वाद योग्य बनाते हैं। ये रस की उत्पत्ति में आधारभूत माने जाते हैं।
विभाव के दो भेद हैं:

आलंबन विभाव

भावों का उद्गम जिस मुख्य भाव या वस्तु के कारण हो वह काव्य का आलंबन कहा जाता है।
आलंबन के अंतर्गत आते हैं विषय और आश्रय
विषय
जिस पात्र के प्रति किसी पात्र के भाव जागृत होते हैं वह विषय है। साहित्य शास्त्र में इस विषय को आलंबन विभाव अथवा 'आलंबन' कहते हैं।
आश्रय
जिस पात्र में भाव जागृत होते हैं वह आश्रय कहलाता है।

उद्दीपन विभाव

स्थायी भाव को जाग्रत रखने में सहायक कारण उद्दीपन विभाव कहलाते हैं।
उदाहरण स्वरूप (१) वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के लिए सामने खड़ा हुआ शत्रु आलंबन विभाव है। शत्रु के साथ सेना, युद्ध के बाजे और शत्रु की दर्पोक्तियां, गर्जना-तर्जना, शस्त्र संचालन आदि उद्दीपन विभाव हैं।
उद्दीपन विभाव के दो प्रकार माने गये हैं:
आलंबन-गत (विषयगत )
अर्थात् आलंबन की उक्तियां और चेष्ठाएं
बाह्य (बर्हिगत)
अर्थात् वातावरण से संबंधित वस्तुएं। प्राकृतिक दृश्यों की गणना भी इन्हीं के अंर्तगत होती हैं।

अनुभाव

रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों को प्रकाशित या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं।
ये चेष्टाएं भाव-जागृति के उपरांत आश्रय में उत्पन्न होती हैं इसलिए इन्हें अनुभाव कहते हैं, अर्थात जो भावों का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है।
अनुभाव के दो भेद हैं - इच्छित और अनिच्छित।
आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणों द्वारा उत्पन्न, भावों को बाहर प्रकाशित करने वाली सामान्य लोक में जो कार्य चेष्टाएं होती हैं, वे ही काव्य नाटक आदि में निबद्ध अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण स्वरूप विरह-व्याकुल नायक द्वारा सिसकियां भरना, मिलन के भावों में अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सहित देखना, क्रोध जागृत होने पर शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आंखों का लाल हो जाना आदि अनुभाव कहे जाएंगे।
साधारण अनुभाव : अर्थात(इच्छित अभिनय)के चार भेद हैं। 1.आंगिक 2.वाचिक 3. आहार्य 4. सात्विक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंगिक या कायिक अनुभाव है। रति भाव के जाग्रत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि प्रयत्न पूर्वक किये गये वाग्व्यापार वाचिक अनुभाव हैं। आरोपित या कृत्रिम वेष-रचना आहार्य अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभाविक, अकृत्रिम, अयत्नज, अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। इसके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसलिए ये अयत्नज कहे जाते हैं। ये स्वत: प्रादुर्भूत होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता।
सात्विक अनुभाव : अर्थात (अनिच्छित)आठ भेद हैं - स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।

संचारी या व्यभिचारी भाव

जो भाव केवल थोड़ी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं, वे संचारी भाव हैं।
संचारी शब्द का अर्थ है, साथ-साथ चलना अर्थात संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचरित होते हैं, इनमें इतना सार्मथ्य होता है कि ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते हैं। इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है।
संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है - निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार (मिर्गी), स्वप्न, प्रबोध, अमर्ष (असहनशीलता), अवहित्था (भाव का छिपाना), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क।

रस की उत्पत्ति

भरत ने प्रथम आठ रसों में श्रृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक रस की उत्पत्ति मानी है। श्रृंगार की अनुकृति से हास्य, रौद्र तथा वीर कर्म के परिणामस्वरूप करुण तथा अद्भुत एवं वीभत्स दर्शन से भयानक उत्पन्न होता है। अनुकृति का अर्थ, अभिनवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: किसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। विकृत वेशालंकारादि भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद्र का कार्य विनाश होता है, अत: उससे करुण की तथा वीरकर्म का कर्ता प्राय: अशक्य कार्यों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पत्ति स्वाभाविक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदर्शन से भयानक की उत्पत्ति भी संभव है। अकेले स्मशानादि का दर्शन भयोत्पादक होता है। तथापि यह उत्पत्ति सिद्धांत आत्यंतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परपक्ष का रौद्र या वीर रस स्वपक्ष के लिए भयानक की सृष्टि भी कर सकता है और बीभत्सदर्शन से शांत की उत्पत्ति भी संभव है। रौद्र से भयानक, श्रृंगार से अद्भुत और वीर तथा भयानक से करुण की उत्पत्ति भी संभव है। वस्तुत: भरत का अभिमत स्पष्ट नहीं है। उनके पश्चात् धनंजय (10वीं शती) ने चित्त की विकास, विस्तार, विक्षोभ तथा विक्षेप नामक चार अवस्थाएँ मानकर श्रृंगार तथा हास्य को विकास, वीर तथा अद्भुत को विस्तार, बीभत्स तथा भयानक को विक्षोभ और रौद्र तथा करुण को विक्षेपावस्था से संबंधित माना है। किंतु जो विद्वान् केवल द्रुति, विस्तार तथा विकास नामक तीन ही अवस्थाएँ मानते हैं उनका इस वर्गीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यदि श्रृंगार में चित्त की द्रवित स्थिति, हास्य तथा अद्भुत में उसका विस्तार, वीर तथा रौद्र में उसकी दीप्ति तथा बीभत्स और भयानक में उसका संकोच मान लें तो भी भरत का क्रम ठीक नहीं बैठता। एक स्थिति के साथ दूसरी स्थिति की उपस्थिति भी असंभव नहीं है। अद्भुत और वीर में विस्तार के साथ दीप्ति तथा करुण में द्रुति और संकोच दोनों हैं। फिर भी भरतकृत संबंध स्थापन से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि कथित रसों में परस्पर उपकारकर्ता विद्यमान है और वे एक दूसरे के मित्र तथा सहचारी हैं।

रसों का परस्पर विरोध

मित्रता के समान ही इन रसों की प्रयोस्थिति के अनुसार इनके विरोध की कल्पना भी की गई है। किस रसविशेष के साथ किन अन्य रसों का तुरंत वर्णन आस्वाद में बाधक होगा, यह विरोधभावना इसी विचार पर आधारित है। करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक से श्रृंगार का; भयानक और करुण से हास्य का; हास्य और श्रृंगार से करुण का; हास्य, श्रृंगार और भयानक से रौद्र का; श्रृंगार, वीर, रौद्र, हास्य और शात से भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृंगार, रौद्र, हास्य और भयानक से शांत का विरोध माना जाता है। यह विरोध आश्रय ऐक्य, आलंबन ऐक्य अथवा नैरंतर्य के कारण उपस्थित होता है। प्रबंध काव्य में ही इस विरोध की संभावना रहती है। मुक्तक में प्रसंग की छंद के साथ ही समाप्ति हो जाने से इसका भय नहीं रहता है। लेखक को विरोधी रसों का आश्रय तथा आलंबनों को पृथक-पृथक रखकर अथवा दो विरोधी रसों के बीच दोनों के मित्र रस को उपस्थित करके या प्रधान रस की अपेक्षा अंगरस का संचारीवत् उपस्थित करके इस विरोध से उत्पन्न आस्वाद-व्याघात को उपस्थित होने से बचा लेना चाहिए।

रस की आस्वादनीयता

रस की आस्वादनीयता का विचार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्वप्रकाशानंद, विलक्षण आदि बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आनंदात्मक माना गया है। भट्टनायक (10वीं शती ई.) ने सत्वोद्रैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा, अभिनवगुप्त (11वीं शती ई.) ने निर्विघ्न प्रतीति तथा आनंदवर्धन (9 श. उत्तर) ने करुण में माधुर्य तथा आर्द्रता की अवस्थित बताते हुए श्रृंगार, विप्रलंभ तथा करुण को उत्तरोत्तर प्रकर्षमय बताकर सभी रसों की आनंदस्वरूपता की ओर ही संकेत किया है। किंतु अनुकूलवेदनीयता तथा प्रतिकूलवेदनीयता के आधार पर भावों का विवेचन करके रुद्रभट्ट (9 से 11वीं शती ई. बीच) रामचंद्र गुणचंद्र (12वीं श.ई.), हरिपाल, तथा धनंजय ने और हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसों का सुखात्मक तथा दु:खात्मक अनुभूतिवाला माना है। अभिनवगुप्त ने इन सबसे पहले ही "अभिनवभारती" में "सुखदु:खस्वभावों रस:" सिद्धात को प्रस्तुत कर दिया था। सुखात्मक रसों में श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत तथा शांत की और दु:खात्मक में करुण, रौद्र, बीभत्स तथा भयानक की गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह सिद्ध किया गया कि गुड़ मिरिच आदि को मिश्रित करके बनाए जानेवाले पानक रस में अलग-अलग वस्तुओं का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक विचित्र प्रकार का आस्वाद मिलता है, उसी प्रकार यह भी कहा गया कि उस वैचित्र्य में भी आनुपातिक ढंग से कभी खट्टा, कभी तिक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदन सरस्वती का कथन है कि रज अथवा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चाहिए कि अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है। आचार्य शुक्ल का मत है कि हमें अनुभूति तो वर्णित भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदि प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनों प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसों को आनंदात्मक मानने के पक्षपाती सहृदयों को ही इसका प्रमण मानते हैं और तर्क का सहारा लेते हैं कि दु:खदायी वस्तु भी यदि अपनी प्रिय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रतिकेलि के समय स्त्री का नखक्षतादि से यों तो शरीर पीड़ा ही अनुभव होती है, किंतु उस समय वह उसे सुख ही मानती है। भोज (11वीं शती ई.) तथा विश्वनाथ (14वीं शती ई.) की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यदि दु:खात्मक ही मानें तो फिर श्रृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मानें तो फिर श्रृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों न माना जाए? इस प्रकार के अनेक तर्क देकर रसों की आनंदरूपता सिद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से मिलनेवाले आनंद का भी अनेक प्रकार से समाधान किया गया है और मराठी लेखकों ने भी रसों की आनंदरूपता के संबंध में पर्याप्त भिन्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं।

रसों का राजा कौन है?

प्राय: रसों के विभिन्न नामों की औपाधिक या औपचारिक सत्ता मानकर पारमार्थिक रूप में रस को एक ही मानने की धारणा प्रचलित रही है। भारत ने "न हि रसादृते कश्चिदप्यर्थ : प्रवर्तत" पंक्ति में "रस" शब्द का एक वचन में प्रयोग किया है और अभिनवगुप्त ने उपरिलिखित धारणा व्यक्त की है। भोज ने श्रृंगार को ही एकमात्र रस मानकर उसकी सर्वथैव भिन्न व्याख्या की है, विश्वनाथ की अनुसार नारायण पंडित चमत्कारकारी अद्भुत को ही एकमात्र रस मानते हैं, क्योंकि चमत्कार ही रसरूप होता है। भवभूति (8वीं शती ई.) ने करुण को ही एकमात्र रस मानकर उसी से सबकी उत्पत्ति बताई है और भरत के "स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शांताद्भाव: प्रवर्तते, पुनर्निमित्तापाये च शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही एकमात्र रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथा विस्मय की सर्वरससंचारी स्थिति के आधार पर उन्हें भी अन्य सब रसों के मूल में माना जा सकता है। रस आस्वाद और आनंद के रूप में एक अखंड अनुभूति मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है।
रसाप्राधान्य के विचार में रसराजता की समस्या उत्पन्न की है। भरत समस्त शुचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को श्रृंगार मानते हैं, "अग्निपुराण" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है, भोज श्रृंगार को ही मूल और एकमात्र रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध लिखित प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमणि" में भक्तिरस के लिए ही दिखाई देता है। हिंदी में केशवदास (16वीं शती ई.) श्रृंगार को रसनायक और देव कवि (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का श्रृंगार के लिए प्रयोग मतिराम (18वीं शती ई.) द्वारा ही किया गया मिलता है। दूसरी ओर बनारसीदास (17वीं शती ई.) "समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृति व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतर्भूत करने की क्षमता सभी संचारियों तथा सात्विकों को अंत:सात् करने की शक्ति सर्वप्राणिसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदि पर निर्भर है। ये सभी बातें जितनी अधिक और प्रबल श्रृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसों में नहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।

श्रृंगार रस

विचारको ने रौद्र तथा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वर्णन किया है। इनमें सबसे विस्तृत वर्णन श्रृंगार का ही ठहरता है। श्रृंगार मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। "काव्यप्रकाश" का विरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अंतर्गत गृहीत हो सकता है, "साहित्यदर्पण" में करुण विप्रलंभ की कल्पना की गई है। पूर्वानुराग कारण की दृष्टि से गुणश्रवण, प्रत्यक्षदर्शन, चित्रदर्शन, स्वप्न तथा इंद्रजाल-दर्शन-जन्य एवं राग स्थिरता और चमक के आधार पर नीली, कुसुंभ तथा मंजिष्ठा नामक भेदों में बाँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" में शीघ्र नष्ट होनेवाले तथा शोभित न होनेवाले राग को "हारिद्र" नाम से चौथा बताया है, जिसे उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूर्वानुराग का दश कामदशाएँ - अभिलाष, चिंता, अनुस्मृति, गुणकीर्तन, उद्वेग, विलाप, व्याधि, जड़ता तथा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण उसके स्थान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, जिनके स्थान पर कहीं अपने तथा कहीं दूसरे के मत के रूप में विष्णुधर्मोत्तरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, साहित्यदर्पण, प्रतापरुद्रीय तथा सरस्वतीकंठाभरण तथा काव्यदर्पण में किंचित् परिवर्तन के साथ चक्षुप्रीति, मन:संग, स्मरण, निद्राभंग, तनुता, व्यावृत्ति, लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथा मरण का उल्लेख किया गया है। शारदातनय (13वीं शती) ने इच्छा तथा उत्कंठा को जोड़कर तथा विद्यानाथ (14वीं शती पूर्वार्ध) ने स्मरण के स्थान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या 12 मानी है। यह युक्तियुक्त नहीं है और इनका अंतर्भाव हो सकता है। मान-विप्रलंभ प्रणय तथा ईष्र्या के विचार से दो प्रकार का तथा मान की स्थिरता तथा अपराध की गंभीरता के विचार से लघु, मध्यम तथा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासविप्रलंभ कार्यज, शापज, सँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कार्यज के यस्यत्प्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के ताद्रूप्य तथा वैरूप्य, तथा संभ्रमज के उत्पात, वात, दिव्य, मानुष तथा परचक्रादि भेद के कारण कई प्रकार का होता है। विरह गुरुजनादि की समीपता के कारण पास रहकर भी नायिका तथा नायक के संयोग के होने का तथा करुण विप्रलंभ मृत्यु के अनंतर भी पुनर्जीवन द्वारा मिलन की आशा बनी रहनेवाले वियोग को कहते हैं। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।

हास्य रस

हास्यरस के विभावभेद से आत्मस्थ तथा परस्थ एवं हास्य के विकासविचार से स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति भेद से तीन भेद करते हुए उनके अंतर्गत पूर्वोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। हिंदी में केशवदास तथा एकाध अन्य लेखक ने केवल मंदहास, कलहास, अतिहास तथा परिहास नामक चार ही भेद किए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अनेक नाम भी प्रचलित हो गए हैं। वीर रस के केवल युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्वीकार किए जाते हैं। उत्साह को आधार मानकर पंडितराज (17वीं शती मध्य) आदि ने अन्य अनेक भेद भी किए हैं। अद्भुत रस के भरत दिव्य तथा आनंदज और वैष्णव आचार्य दृष्ट, श्रुत, संकीर्तित तथा अनुमित नामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तथा धनंजय के अनुसार शुद्ध, क्षोभन तथा उद्वेगी नाम से तीन प्रकार का होता है और भयानक कारणभेद से व्याजजन्य या भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तथा वित्रासितक या वास्तविक नाम से तीन प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ भेद से दो प्रकार का माना जाता है। शांत का कोई भेद नहीं है। केवल रुद्रभट्ट ने अवश्य वैराग्य, दोषनिग्रह, संतोष तथा तत्वसाक्षात्कार नाम से इसके चार भेद दिए हैं जो साधन मात्र के नाम है और इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।

शान्त रस

शांत रस का उल्लेख यहाँ कुछ दृष्टियों से और आवश्यक है। इसके स्थायीभाव के संबंध में ऐकमत्य नहीं है। कोई शम को और कोई निर्वेद को स्थायी मानता है। रुद्रट (9 ई.) ने "सम्यक् ज्ञान" को, आनंदवर्धन ने "तृष्णाक्षयसुख" को, तथा अन्यों ने "सर्वचित्तवृत्तिप्रशम", निर्विशेषचित्तवृत्ति, "घृति" या "उत्साह" को स्थायीभाव माना। अभिनवगुप्त ने "तत्वज्ञान" को स्थायी माना है। शांत रस का नाट्य में प्रयोग करने के संबंध में भी वैमत्य है। विरोधी पक्ष इसे विक्रियाहीन तथा प्रदर्शन में कठिन मानकर विरोध करता है तो समर्थक दल का कथन है कि चेष्टाओं का उपराम प्रदर्शित करना शांत रस का उद्देश्य नहीं है, वह तो पर्यंतभूमि है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांति एवं लौकिक दु:ख सुख के प्रति विराग के प्रदर्शन से ही काम चल सकता है। नट भी इन बातों को और इनकी प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्नों को दिखा सकता है और इस दशा में संचारियों के ग्रहण करने में भी बाधा नहीं होगी। सर्वेंद्रिय उपराम न होने पर संचारी आदि हो ही सकते हैं। इसी प्रकार यदि शांत शम अवस्थावाला है तो रौद्र, भयानक तथा वीभत्स आदि कुछ रस भी ऐसे हैं जिनके स्थायीभाव प्रबुद्ध अवस्था में प्रबलता दिखाकर शीघ्र ही शांत होने लगते हैं। अतएव जैसे उनका प्रदर्शन प्रभावपूर्ण रूप में किया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदर्शन अन्य स्थानों पर निषिद्ध है वैसे ही उपराम की पराकाष्ठा के प्रदर्शन से यहाँ भी बचा जा सकता है।

रसों का अन्तर्भाव आदि

स्थायीभावों के किसी विशेष लक्षण अथवा रसों के किसी भाव की समानता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतर्भाव करने, किसी स्थायीभाव का तिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने की प्रवृत्ति भी यदा-कदा दिखाई पड़ी है। यथा, शांत रस और दयावीर तथा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतर्भाव तथा बीभत्स स्थायी जुगुप्सा को शांत का स्थायी माना गया है। "नागानंद" नाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का नाटक मानता है। किंतु यदि शांत के तत्वज्ञानमूलक विराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्यान दिया जाए तो दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो विकर्षण है वह शांत में नहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोनों से परे समावस्था और तत्वज्ञानसंमिलित रस है जिसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बन सकती है। ठीक ऐसे जैसे करुण में भी सहानुभूति का संचार रहता है और दयावीर में भी, किंतु करुण में शोक की स्थिति है और दयावीर में सहानुभूतिप्रेरित आत्मशक्तिसंभूत आनंदरूप उत्साह की। अथवा, जैसे रौद्र और युद्धवीर दोनों का आलंबन शत्रु है, अत: दोनों में क्रोध की मात्रा रहती है, परंतु रौद्र में रहनेवाली प्रमोदप्रतिकूल तीक्ष्णता और अविवेक और युद्धवीर में उत्सह की उत्फुल्लता और विवेक रहता है। क्रोध में शत्रुविनाश में प्रतिशोध की भावना रहती है और वीर में धैर्य और उदारता। अतएव इनका परस्पर अंतर्भाव संभव नहीं। इसी प्रकार "अंमर्ष" को वीर का स्थायी मानना भी उचित नहीं, क्योंकि अमर्ष निंदा, अपमान या आक्षेपादि के कारण चित्त के अभिनिवेश या स्वाभिमानावबोध के रूप में प्रकट होता है, किंतु वीररस के दयावीर, दानवीर, तथा धर्मवीर नामक भेदों में इस प्रकार की भावना नहीं रहती।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

'हलीम' उवाच


आतंकवाद मिट जाये जड़ से, स्वस्थ समाज बने हमारा.
 भ्रष्टाचार, महंगाई, अशिक्षा, से पा जाएँ हम छुटकारा.

न्याय, सुरक्षा पायें सब ही, मिले रोज़गार सबको प्यारा.
बन जाये कुछ ऐसा सुन्दर, प्यारा भारत देश हमारा.