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शनिवार, 28 मार्च 2020

'हलीम' उवाच

हिंदी भाषा का विकास


'हिन्दी' वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- हिन्दी का या हिंद से संबंधित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु (सिंध- पश्चिमी लोगों के लिए सिन्धु नदी के पार का देश) से हुई है। ईरानी भाषा में 'स' का उच्चारण 'ह' किया जाता था। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द संपूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा । इसी 'हिन्द' से हिन्दी शब्द बना। 

आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। वैदिक भाषा में वेद, संहिता एवं उपनिषदों-वेदांत का सृजन हुआ है। वैदिक भाषा के साथ-साथ ही बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता है। संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली वैदिककालीन भाषाओं से माना जाता है। अनुमानत: ८ वीं.शताब्दी ई.पू. में इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था। संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, अश्वघोष, माघ, भवभूति, विशाख, मम्मट, दंडी तथा श्रीहर्ष आदि संस्कृत की महान विभूतियाँ है। इसका साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है।

संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते 500 ई.पू. के बाद तक काफ़ी बदल गई, जिसे 'पाली' कहा गया। महात्मा बुद्ध के समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही। पहली ईसवी तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे 'प्राकृत' की संज्ञा दी गई। इसका काल पहली ई. से 500 ई. तक है।
पाली की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषाएँ- पश्चिमी, पूर्वी, पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी, अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, जिन्हें मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड तथा अर्धमागधी भी कहा जा सकता है।

आगे चलकर प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएँ प्रतिष्ठित हुईं। इनका समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा साहित्य के मुख्यत: दो रूप मिलते हैं- पश्चिमी और पूर्वी। अनुमानत: 1000 ई. के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ। अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ। आधुनिक आर्य भाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी है, का जन्म 1000 ई.के आसपास ही हुआ था, किंतु उसमें साहित्य रचना का कार्य 1150 या इसके बाद आरंभ हुआ।

अनुमानत: तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ, यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते हैं। आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है -

            अपभ्रंश                                आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा

              पैशाची                                         लहंदा, पंजाबी
              ब्राचड़                                           सिन्धी
              महाराष्ट्री                                     मराठी।
              अर्धमागधी                                   पूर्वी हिन्दी।
              मागधी                                         बिहारी, बंगला, उड़िया, असमिया।
              शौरसेनी                                       पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव अपभ्रंश के अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी रूपों से हुआ है।

हिन्दी सभी भारतीय आर्य भाषाओं की बड़ी बहन है और सबसे अधिक जनसमूह द्दारा बोली-समझी जाती है। हिन्दी की तीन कालक्रमिक स्थितियाँ हैं-- 1) आदिकाल (सन् 1000 से 1500 ई.) 2) मध्यकाल (सन् 1500 से 1800 ई.) 3) आधुनिक काल (सन् 1800 से आज तक) 

1) आदिकाल:- आधुनिक आर्यभाषा हिन्दी का आदिकाल अपभ्रंश तथा प्राकृत से अत्यधिक प्रभावित था। आदिकालीन नाथों और सिध्दों ने इसी भाषा में धर्म प्रचार किया था। इस काल में हिन्दी में मुख्य रूप से वही ध्वनियाँ मिलती हैं जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं। अपभ्रंश के अलावा आदिकालीन हिन्दी में 'ड़', 'ढ़' आदि ध्वनियाँ आई हैं। मुसलमान शासकों के प्रभाव से अरबी तथा फारसी के कुछ शब्दों के कारण भी कुछ नये व्यंजन- ख, ज, फ, आदि आ गये। ये व्यंजन अपभ्रंश में नहीं मिलते थे। अपभ्रंश के तीन लिंग थे। किन्तु प्राचीन हिन्दी में नपुंसक लिंग समाप्त हो गया। प्राचीन काल में चारण भाटों ने इसी भाषा में डिंगल साहित्य अर्थात् 'रासो' ग्रंथों का निर्माण किया। 

2) मध्यकाल:- इस काल में अपभ्रंश का प्रभाव लगभग समाप्त हो गया और हिन्दी की तीन प्रमुख बोलियाँ विशेषकर अवधी, ब्रज तथा खड़ी बोली स्वतन्त्र रूप से प्रयोग में आने लगी । साहित्यिक दृष्टि से इस युग में मुख्यत: ब्रज और अवधी में साहित्य निर्माण हुआ। कृष्णभक्ति शाखा के संत कवियों ने ब्रज भाषा में अपने ग्रन्थों का निर्माण किया तथा रामभक्ति शाखा के कवियों ने अवधी भाषा में अपनी रचनाओं का निर्माण किया। इसके साथ ही प्रेमाश्रयी शाखा के सूफी कवियों ने भी अवधी में अपनी रचनाएँ लिखीं। ब्रज तथा अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग इस युग में काफी पनपा। मुसलमान शासकों के प्रभाव से खड़ी बोली में अरबी तथा फारसी शब्द प्रचलित हुए और उसके विकास का श्रीगणेश हुआ। 

3) आधुनिक काल:- अठारहवीं शती में ब्रज तथा अवधी भाषा की शक्ति तथा प्रभाव क्षीण होता गया और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ से ही खड़ी बोली का मध्यप्रदेश की हिन्दी पर भारी प्रभाव पड़ा। बोलचाल, राजकाज तथा साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली हिन्दी का व्यापक पैमाने पर प्रयोग होने लगा था। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से हिन्दी भाषा के पाँच उपभाषा वर्ग माने गये हैं- 

1) पश्चिमी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत कौरवी (खड़ी बोली), बागरू (हरियाणवी), ब्रज, कन्नौजी एवं बुंदेली। 

2) पूर्वी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी बोलियाँ। 

3) बिहारी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत भोजपुरी, मैथिली, मगही बोलियाँ।  
भारतीय बोलियों का क्षेत्र 

4) राजस्थानी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत मारवाड़ी, जयपुरी (हाड़ोती), मेवाती और मालवी आदि बोलियाँ आती हैं। 

5) पहाड़ी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से गढ़वाली तथा कुमाउँनी बोलियाँ आती हैं।