यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 29 सितंबर 2014

'हलीम' उवाच
विदेशी संस्थागत निवेश को बढ़ाने के लिए सरकार ने इनको भारत के म्यूचुअल फंड्स में निवेश करने का अवसर दिया है, जो पहले नहीं था। इससे भारत में विदेशी पूंजी का निवेश बढ़ेगा। इससे हमको चालू खाते का घाटा पूरा करने में मदद मिलेगी। सरकार ने सामाजिक आर्थिक कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों में खर्च में वृद्धि की है, लेकिन मुद्रास्फीति के संबंध में व्यक्तिगत करदाताओं को तो कुछ राहत दी गई है, लेकिन इनका आबादी में केवल तीन प्रतिशत अंश है। आम लोगों के उपभोग की वस्तुओं की कीमतों की वृद्धि के संबंध में बजट में कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। वर्ष 2011-12 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर भावी मानसून पर निर्भर करेगी। 2010-11 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर 5.4 प्रतिशत हासिल की गई थी, जिसे 2011-12 में प्राप्त करना आसान नहीं होगा। विश्व में क्रूड तेल के भाव 110 डॉलर प्रति बैरल से अधिक हो गए हैं। सरकार को सब्सिडी पर खर्च कम करने के लिए भारी चुनौती का सामना करना है। देखना यह है कि विश्व के बदलते माहौल में सरकार अर्थव्यवस्था की स्थिति को कैसे संतुलित रख पाती है। इसके लिए प्रशासनिक अभावों, क्रियान्वयन के अभावों व नैतिकता के अभावों को दूर करना होगा। क्या सरकार ऎसा कुछ कर पाएगी?  यहां 'प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति', है जो भारत में विदेशी निवेश के विभिन्‍न पक्षों का नियंत्रण करती है। इस नीति का लक्ष्‍य भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के सभी अनुमत क्षेत्रों में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करना और साथ ही इसके विकास प्रभाव को विसारित करना है। लगभग सभी भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के क्षेत्रों में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश मुक्‍त रूप से अनुम‍त है। यह दो मार्गों से किया जा सकता है जो हैं स्‍वचालित मार्ग और सरकारी मार्ग। पहले मार्ग के तहत विदेशी निवेशकों को भारतीय रिजर्व बैंक या भारत सरकार से निवेश की अनुमति नहीं लेनी होती है। जबकि दूसरे मार्ग में विदेशी निवेश प्रवर्तन मंडल, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार का पूर्व अनुमोदन लेकर ही निवेश किया जा सकता है। ये शर्तें विदेशी भारतीयों पर भी लागू हुई है। विदेशी मुद्रा की कमी भारत क़ा एक प्रमुख संकट थी, विदेशी ऋणों पर चूक को कम करने के लिए प्रतिक्रिया स्वरुप भारत ने नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था को खोला |. घरेलू और बाहरी क्षेत्र नीति की आंशिक रूप से तत्काल जरूरत थी और आंशिक रूप से बहुपक्षीय संगठनों की मांग से प्रेरित उपायों में निहित थी |. नई शासन नीति ने मौलिक, खुला और बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था को आगे बढाया|.नौवें दशक के प्रारंभ में उदारीकरण और भूमंडलीकरण की रणनीति के हिस्से में प्रमुख रूप से शुरू किये गए उपायों में औद्योगिक लाइसेंसिंग व्यवस्था को निरस्त किया जाना , तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या में कमी करना शामिल
है |, एकाधिकार तथा व्यापार अवरोधक व्यवहार अधिनियम में संशोधन, विभिन्न निजीकरण कार्यक्रम, टैरिफ दरों में कमी और आर्थिक व्यवस्था को अधिक बदलने के लिए बाज़ार द्वारा निर्धारित विनिमय दर जो बाजार के प्रति उन्मुख है होना शामिल है |.चालू खाता लेनदेन में एक स्थिर उदारीकरण किया गया है, अधिक से अधिक क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और पोर्टफोलियो निवेश में दूरसंचार, सड़कों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, बीमा और अन्य प्रमुख क्षेत्रों को विदेशी निवेशकों की प्रविष्टि की सुविधा के लिए खोला गया है|


विश्व के निवेशक सदा सुरक्षित निवेश करने के स्थान की खोज में रहते हैं। गृहिणी अपनी बचत को सरकारी बैंक में फिक्स डिपॉजिट में रखती हैं। वे शेयर या प्रापर्टी नहीं खरीदतीं। इसी प्रकार विश्व के तमाम निवेशक सुरक्षित निवेश की खोज में लगे रहते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले ब्रिटिश पाउंड को सुरक्षित माना जाता था। विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी डॉलर ने विश्व मुद्रा का स्थान ले लिया। दस साल पहले तक निवेशक मानते थे कि अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांड में निवेश की गई रकम सुरक्षित रहेगी। अमेरिका की अर्थव्यवस्था विशाल होने के साथ-साथ तेजी से बढ़ रही थी। लोगों को इसके टूटने का तनिक भी भय नहीं था। अत: सुरक्षा की चाह रखने वाले निवेशक अमेरिकी कंपनियों के शेयर, अमेरिकी प्रापर्टी अथवा अमेरिकी सरकार द्वारा जारी बांड खरीद लेते थे। महंगाई बढ़ने का मूल कारण मांग और आपूर्ति का असंतुलन माना जाता है. जब माँग बढ़ जाती है और आपूर्ति कम हो जाती है तो महंगाई बढ़ जाती है. लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में ये कितना सही है?
क्या किसी वस्तु की सप्लाई कम हुई है? देश में सीमेंट, स्टील या खाद्यान्न का उत्पादन पिछले सालों के मुकाबले में कम नहीं हुआ है. देश में महँगाई बढ़ने का प्रमुख कारण अधिक विदेशी पूँजी निवेश का आगमन है और अर्थव्यव्यवस्था में आई तेज़ी है.देश में पहले की तुलना मे, पिछले तीन-चार महीनों में लगभग दस अरब डालर का विदेशी निवेश हुआ है. जबकि शेयर बाज़ार में 3-4 अरब डॉलर की ही बिकवाली हुई है. विदेशी पूँजी का यह प्रवाह भारतीय अर्थव्यवस्था में तेज़ी बना रहा है और मांग पैदा कर रहा है, जिससे महंगाई बढ़ रही है.
इस समस्या का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू ये है कि भारत सरकार आय़ात-निर्यात के असंतुलन को हल करने की कोशिश से केवल घरेलू और विश्व बाज़ार के मूल्यों में संतुलन बना सकती है. लेकिन जिन वस्तुओं के दाम दुनिया भर में बढ़ रहे हैं उन पर सरकार के उठाए कदमों का कोई प्रभाव नहीं पडे़गा. घरेलू मांग को रोकने से यह व्यवस्था भी अप्रभावी होगी क्योंकि मौलिक समस्या ये है कि सरकार विदेशी निवेश को नहीं रोक पा रही है. इस तरह भारत में उत्पादन के बावजूद विश्व की पूंजी का भारत की ओर पलायन महंगाई को और बढ़ा रहा है. 
 आज जिस तरह अमेरिकन अर्थव्यवस्था की मंदी की स्थिति संसार के अनेक देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रही है, वह हमारे लिए भी खतरे की घंटी है। बेशक, अन्य देशों की तरह हम भी विदेशी आर्थिक परिवर्तनों से बच नहीं सकते। फिर भी हमें कोई न कोई तरीका तो ढूंढऩा ही पड़ेगा कि विदेशी आर्थिक परिवर्तनों का हम पर न्यूनतम प्रभाव पड़े। जब अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, चीन आदि देशों में शेयर मूल्यों की कमी का प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत पड़ता है तो ऐसा लगता है कि हमें किसी ऐसे काम की सजा मिली है, जो हमने किया ही नहीं। भारत में आसमान छूती कीमतें अर्थव्यवस्था के उदारीकरण तथा वैश्वीकरण का ही परिणाम हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था में कुछ कंट्रोल सिस्टम तो लागू करना ही होगा। हमें और तेजी से आयात-प्रतिस्थापन की ओर ध्यान देना पड़ेगा, निर्यात में वृद्धि तथा आयात में कमी करनी होगी, ताकि हमारे पास अधिक विदेशी मुद्रा हो। पूंजी निर्माण को और प्रोत्साहित करना होगा। जहां तक हो सके अपनी अर्थव्यवस्था की नकेल अपने हाथों में हो। मिश्रित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाए। एक बार फिर स्वदेशी लहर चलाई जाए। इन बातों से हमारी विदेशों पर निर्भरता तथा हमारे शेयर बाजार पर विदेशी प्रभाव कम हो जाएगा।

१२- २०११ - की पहली छमाही के दौरान विदेशी संस्थागत निवेश १ ,३४६ अरब अमरीकी डालर था जो की पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि में २३ ,७९६अरब अमरीकी डालर था |
 १२-२०११ की पहली छमाही के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, तथा, पिछले वर्ष की इसी अवधि में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तुलनात्मक अध्यन से पता चलता है की इसमें
७,०४० अरब अमरीकी डालर से १२ ,३१0 अरब अमरीकी डालर तक की वृद्धि हुई है.जो की सराहनिए है |

 

रविवार, 4 मई 2014

नारी-सुरक्षा के लिए बनते कानून और उनकी वास्तविकता

'हलीम' उवाच

नारी-सुरक्षा के लिए बनते कानून और उनकी वास्तविकता

भारत का संविधान सभी भारतीय नारियों को समान अधिकार, समान अवसर, समान सुविधाएँ और समान सुरक्षा उपलब्ध कराने की गारंटी देता है. हमारा संविधान महिलाओं की गरिमापूर्ण स्थिति और सुरक्षित जीवन का प्रावधान करता है, परन्तु भारतीय नारी का यह दुर्भाग्य ही है कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक उसके जीवन की सुरक्षा कागज़ों में ही सिमटकर रह गयी. कई सरकारें आईं और गयीं, नारी सुरक्षा के लिए कानून भी बने; लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उनका कुछ खास लाभ महिलाओं को नहीं मिल सका. पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में वृद्धि हुई है वह एक बात स्पष्ट करती है कि शहरों या गावों में कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. महिलाओं के साथ लूट, हत्या, अपहरण, बलात्कार, यौन-उत्पीड़न, छेड़-छाड़ की घटनाएँ पिछले वर्षों में अंधाधुंध बढ़ी हैं. खास बात तो यह है कि भीड़-भाड़ वाले स्थानों या व्यस्त सड़कों पर भी अब ऐसी घटनाएँ होने लगी हैं. वर्तमान में सार्वजनिक स्थानों, बाज़ारों या कार्यस्थलों पर ही नहीं बल्कि घरों में भी नारियाँ सुरक्षित नहीं रह गयी हैं.
दोस्तों! नारियों की इस विचारणीय स्थिति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हमारी प्रशासन व्यवस्था और सरकार है. कोई भी नया कानून या व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है जब यथार्थ के धरातल पर उसका अनुपालन सही ढंग से हो. नारी सुरक्षा के लिए संविधान-निर्माण के समय से लेकर अब तक कई कानून बने पर उनके उचित क्रियान्वयन न हो पाने के कारण स्थिति जस की तस रह गई. भारतीय संविधान में नारियों को कई विशेषाधिकार दिए गए हैं. जैसे- अनुच्छेद-14 में महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार करने, अनुच्छेद-39(a) में उन्हें न्याय व क़ानूनी सहायता उपलब्ध कराने और अनुच्छेद-51(a) में महिलाओं की गरिमा बनाये रखने तथा अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने का प्रावधान है, परन्तु खेद है कि हमारा समाज उनके इन संवैधानिक अधिकारों की रक्षा भी नहीं कर पाता. कभी समाज संविधान की गरिमा को तोड़ता है तो कभी सामाजिक संस्थाएँ उनकी रक्षा को लेकर लापरवाही बरतती हैं. या कभी-कभी लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के डर से खुद महिलाएं ही पीछे हट जाती हैं. ऐसे कुछ मौकों पर महिलाओं में जागरूकता की कमी भी आड़े आती है.
लोकतान्त्रिक भारत में 'दहेज़ उत्पीड़न' नारियों पर होने वाले सबसे बड़े अत्याचार के रूप में सामने आया. इससे निपटने के लिए संसद ने 1961 में दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम पारित किया, परन्तु आज भी न जाने कितनी ही स्त्रियाँ दहेज़ रूपी दानव का शिकार होती हैं. इसका सबसे बड़ा दोषी हमारा समाज है जो दहेज़ के लोभ में नारियों पर ज़ुल्म करता है; तो वहीं सरकार का सुस्त रवैया भी एक प्रमुख कारण है. इसी प्रकार घरेलू हिंसा को रोकने के लिए भी 'घरेलू हिंसा अधिनियम' 2005 में पारित किया गया. लेकिन वास्तविक स्थिति यह है की आज भी घरेलू कलह या उत्पीड़न के कारण सैकड़ों नारियाँ जान दे देती हैं और इनमें परिवार की महिला सदस्य ही मुख्य भूमिका में होती हैं. परिवारों में उत्तराधिकार की परंपरा और अधिकारों को लेकर बढ़ता वैमनस्य इसका प्रमुख कारण है. ......लेकिन इन सब मामलों को छोटी-मोटी शिकायतों से अधिक गंभीरता से नहीं लिया जाता.
समाज के बदलते आधुनिक स्वरूप में नारियों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप 'यौन-उत्पीड़न' है जो उन्हें शारीरिक व मानसिक दोनों कष्ट देता है. इसे रोकने के लिए 'यौन-उत्पीड़न- रोकथाम, निषेध और निवारण अधिनियम' 2013 में पारित किया गया, परन्तु उचित निगरानी के अभाव में इस पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका. होना यह चाहिए था कि सार्वजनिक स्थलों, निजी व सरकारी कार्यालयों में कैमरों द्वारा निगरानी कर ऐसे मामलों में प्रशासन स्वतः संज्ञान लेता और कार्यवाही करता जबकि इसके बजाय यौन उत्पीड़न की सूचना को मामूली छेड़छाड़ मानकर उसे ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाता है. इसी उदासीनता के कारण आज बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं जो साल-दर-साल  बढ़ती ही जा रही हैं.
हालाँकि नारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने जनवरी 2013 में दो हेल्पलाइन  '181' और '1091' की शुरुआत की, जहाँ महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी प्रकार के अपराध की सूचना दी जा सकती है; लेकिन उसके प्रचार की कमी और ढीली तथा अव्यवस्थित कार्यप्रणाली के चलते 2-3 महीने बाद ही वह सुस्त पड़ गयी. कई बार तो इन हेल्पलाइनों में कॉल सुनने वाले कर्मचारी पीड़िता से अश्लील वार्तालाप पर उतर आते हैं और बेचारी महिला अपनी व्यथा की शिकायत मन में ही दबाकर उस अत्याचार को अपनी नियति मानकर चुप रह जाती है. नतीजतन आज ये हेल्पलाइनें सिर्फ नमूना बनकर रह गई हैं. इसी प्रकार राज्य सरकारों ने महिलाओं की सुरक्षा और निजता को ध्यान में रखकर महिला पुलिस का गठन किया था परन्तु पुलिस विभाग की टालू व अराजक कार्यशैली के कारण उसका उद्देश्य ही समाप्त हो गया और आज उसका जो हश्र है वह किसी से छिपा नहीं है.
कुल मिलाकर आज की वर्तमान स्थिति यह है कि नारी सुरक्षा के नाम पर राजनीति तो खूब होती है और कानून भी बहुत हैं, परन्तु न तो उनका सही ढंग से क्रियान्वयन होता है और न ही उनका पालन कराने वाले संवेदनशील हैं. इस कारण नारियाँ आज बेहद असुरक्षित हो गई हैं और लोकलाज के भय तथा सुस्त प्रशासनिक रवैये के कारण अपने लिए बनाये गए किसी भी कानून का उपभोग न कर पाते हुए भयग्रस्त माहौल में जीने को विवश हैं.

गुरुवार, 1 मई 2014

अख़बार

'हलीम' उवाच

अख़बार

आज सुबह जब मैं अख़बार देख रहा था;
देश के हालत पर नेताओं को कोस रहा था.

हर एक कॉलम पर नज़र घूमी मेरी एक बार,
लूट, हत्या, रेप, ग़बन से भर गया अख़बार.

अख़बार के पन्ने बढ़ा दें क्यों न फिर श्रीमान,
सजी रहे अपराध और पापों की यह दूकान.

दूकान में ज़रूरी है तिलिस्म, मनोरंजन और रोमांच,
पिघलती बुद्धि-नैतिकता, कड़ी है नोट की ये आँच.

चार-पाँच की मौत बस 'पाँच' लाइन में आती है,
और जागृति की खबर 'सामूहिक कॉलम' पाती है.

फ़िल्मी सितारे छा रहे, 'एड' भरते जा रहे.
भूख के उपाय 'शॉपिंग मॉल्स' से बतला रहे.

है किसे चिंता! किसानों की ज़मीनें बिक रहीं,
उन पर खड़ी अट्टालिकाओं की पुराणें बिक रहीं.

'नित-तरक्की' के नए सोपान इनमें दीखते,
पर मिलों के बंद तालों पर नहीं कुछ लीखते.

छोड़ यह क्या रट लगाये, तू रोटी-रोटी करता है;
ग़रीब का पेट तो 'बत्तीस' रूपए में भरता है.

हट! देखता तू नहीं, मंत्री जी इधर आ रहे,
बीच में न बोलना! हम 'बाइट' उनकी बना रहे.

आर्थिक सुधारों को दिखाने का बढ़ा व्यापार,
अब अमीरों के बेडरूम भी दिखलाएगा अख़बार.

ग़रीबी ख़त्म होने के ख़ूब दावे आप पाएँगे;
ग़रम-चिकने चेहरे अब पहले पेज पर छापे जाएँगे.

सब भ्रष्ट ख़बरों को सही स्थान वही दे पाएगा,
जो अख़बार अपने पृष्ठों की गिनतियाँ बढ़ाएगा.

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

'हलीम' उवाच

WOMEN-SPECIFIC LEGISLATIONS
महिलाओं के लिए विशेष कानून
अनैतिक व्यापार ( निवारण ) अधिनियम, 1956
दहेज प्रतिषेध अधिनियम , 1961 (1961 का 28 ) ( 1986 में संशोधित )
महिलाओं के अश्लील प्रतिनिधित्व (निषेध ) अधिनियम, 1986
सती के आयोग ( निवारण) अधिनियम , 1987 (1988 का 3)
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं का संरक्षण
कार्यस्थल ( रोकथाम, निषेध और निवारण ) अधिनियम , 2013 में महिलाओं के यौन उत्पीड़न


महिलाओं से संबंधित कानून
भारतीय दंड संहिता , 1860
1872 भारतीय साक्ष्य अधिनियम
भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम , 1872 (1872 का 15)
विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम , 1874 (1874 का 3)
रखवालों और वार्ड अधिनियम , 1890
Workmens क्षतिपूर्ति अधिनियम , 1923
ट्रेड यूनियन 1926 अधिनियम
बाल विवाह निषेध अधिनियम , 1929 (1929 का 19)
मजदूरी अधिनियम का भुगतान , 1936
मजदूर ( प्रक्रिया) अधिनियम , 1937 का भुगतान
मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम , 1937
नियोक्ता देयताएं 1938 अधिनियम
1948 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948
कारखाना अधिनियम, 1948
1950 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम
बागान श्रम अधिनियम , 1951 (अधिनियमों नग द्वारा संशोधित 1953 के 42 , 1960 के 34, 53 of1961 , 58 1981and की 1986 की 61 )
सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, 1952
खान 1952 अधिनियम
विशेष विवाह अधिनियम , 1954
सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955
हिंदू विवाह अधिनियम , 1955 (1989 का 28 )
हिंदू को गोद देने तथा रखरखाव अधिनियम, 1956
हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956
1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम
मातृत्व लाभ अधिनियम , 1961 (1961 का 53 )
बीड़ी एवं सिगार कर्मकार (नियोजन की शर्तें) अधिनियम, 1966
विदेश विवाह अधिनियम , 1969 (1969 का 33 )
भारतीय तलाक अधिनियम , 1969 (1969 का 4)
ठेका श्रम ( विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम, 1970
गर्भावस्था अधिनियम का चिकित्सीय समापन , 1971 (1971 का 34)
1973 आपराधिक प्रक्रिया संहिता
समान पारिश्रमिक अधिनियम , 1976
बंधुआ श्रम प्रणाली ( उत्सादन) अधिनियम, 1979
अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार ( सेवा के रोजगार और शर्तों का विनियमन) अधिनियम , 1979
परिवार न्यायालय अधिनियम , 1984
दहेज अधिनियम 1986 पर अधिकार की मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण
मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम , 1987
महिला अधिनियम के लिए राष्ट्रीय आयोग , 1990 (1990 का 20 )
मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम , 1993 [ मानव अधिकारों के संरक्षण ( संशोधन) अधिनियम , 2006No द्वारा संशोधित. 2006 के 43]
किशोर न्याय अधिनियम, 2000
बाल श्रम ( निषेध एवं विनियमन) अधिनियम
प्रसव पूर्व निदान तकनीक ( दुरूपयोग का विनियमन और निवारण) अधिनियम 1994

भारत में महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों

लैंगिक समानता के सिद्धांत इसकी प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों , मौलिक कर्तव्यों और निर्देशक सिद्धांतों में भारतीय संविधान में निहित है . संविधान में महिलाओं के लिए समानता अनुदान , बल्कि महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपायों को अपनाने के लिए राज्य की शक्ति प्रदान करता है. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के ढांचे के भीतर, हमारे कानून , विकास नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उन्नति के उद्देश्य से है . भारत भी महिलाओं को समान अधिकार सुरक्षित करने के लिए करने के लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और मानव अधिकारों के उपकरणों का अनुमोदन किया गया है . उनके बीच प्रमुख 1993 में भेदभाव के खिलाफ महिला ( सीईडीएडब्ल्यू ) के सभी रूपों के उन्मूलन पर कन्वेंशन का अनुसमर्थन है .

1 . संवैधानिक प्रावधानों

भारत के संविधान में महिलाओं के लिए समानता अनुदान बल्कि उनके द्वारा सामना की संचयी सामाजिक, आर्थिक , शिक्षा और राजनीतिक नुकसान को निष्क्रिय करने के लिए महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपायों को अपनाने के लिए राज्य की शक्ति प्रदान करता है. मौलिक अधिकारों , दूसरों के बीच में , कानून और कानून का समान संरक्षण के समक्ष समानता सुनिश्चित करना; धर्म , मूलवंश, जाति , लिंग या जन्म स्थान , और रोजगार से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों को अवसर की गारंटी समानता के आधार पर किसी भी नागरिक के खिलाफ भेदभाव . लेख 14, 15 , 15 (3) , 16 , 39 (क) , 39 (बी) , 39 ( सी) और संविधान के 42 इस संबंध में विशेष महत्व के हैं .

संवैधानिक विशेषाधिकार
महिलाओं के लिए कानून से पहले ( मैं ) समानता (अनुच्छेद 14)

(ii) राज्य केवल धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक के खिलाफ भेदभाव करने के लिए नहीं , जन्म के मूलवंश, जाति , लिंग , स्थान या उनमें से किसी को ( अनुच्छेद 15 ( क) )

( iii) राज्य में महिलाओं और बच्चों के पक्ष में कोई विशेष प्रावधान ( अनुच्छेद 15 (3)) बनाने के लिए

राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसर (iv ) समानता (अनुच्छेद 16 )

(v ) राज्य में पुरुषों और महिलाओं के लिए आजीविका ( अनुच्छेद 39 (ए) ) के पर्याप्त साधन भी उतना ही अधिकार को प्राप्त करने की दिशा में अपनी नीति के लिए; और दोनों पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन ( अनुच्छेद 39 ( घ) )

( vi) , न्याय को बढ़ावा देने के समान अवसर के आधार पर और न्याय प्राप्त करने के अवसर आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण ( द्वारा किसी भी नागरिक से इनकार नहीं कर रहे हैं कि यह सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य तरीके से मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 39 ए)

(सात) राज्य ( अनुच्छेद 42 ) काम की बस और मानवीय स्थितियों हासिल करने के लिए और प्रसूति सहायता के प्रावधान बनाने के लिए

(आठ) राज्य विशेष देखभाल के साथ समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और सामाजिक अन्याय से बचाने के लिए और शोषण के सभी रूपों ( अनुच्छेद 46 )

(नौ) राज्य पोषण के स्तर और अपने लोगों के जीवन स्तर ( अनुच्छेद 47 ) को बढ़ाने के लिए

(x) भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए और महिलाओं की गरिमा ( अनुच्छेद 51 (ए) ( ई ) ) के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने के लिए

महिलाओं और इस तरह के लिए आरक्षित करने की हर पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के ( अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या भी शामिल है) में एक तिहाई से अधिक ( ग्यारहवीं ) कम नहीं एक पंचायत (अनुच्छेद 243 डी ( 3) ) में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रानुक्रम से आबंटित किए जाने की सीटें

कुल महिलाओं के लिए आरक्षित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर पंचायतों में अध्यक्षों के पदों की संख्या (अनुच्छेद 243 डी ( 4) ) की एक तिहाई से अधिक ( बारहवीं ) कम नहीं

महिलाओं और इस तरह के लिए आरक्षित करने की हर नगर ​​पालिका में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के ( अनुसूचित जाति की महिलाओं और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या भी शामिल है) में एक तिहाई से अधिक (नौ) भी कम नहीं एक नगर पालिका में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रानुक्रम से आबंटित किए जाने की सीटें (अनुच्छेद 243 T ( 3) )

( एक्स ) अनुसूचित जाति , एक राज्य की विधायिका के रूप में इस तरह के तरीके में अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए नगर पालिकाओं में अध्यक्षों के पदों के आरक्षण के लिए कानून द्वारा प्रदान कर सकता है (अनुच्छेद 243 T ( 4) )

2 . कानूनी प्रावधानों

संवैधानिक जनादेश को बनाए रखने के लिए, राज्य , समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक भेदभाव और हिंसा और अत्याचार के विभिन्न रूपों का मुकाबला करने के लिए और विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं के लिए समर्थन सेवाएं प्रदान करने के उद्देश्य से विभिन्न विधायी उपायों अधिनियमित किया है .

महिलाओं के इस तरह के 'मर्डर ' , ' चोरी ' के रूप में अपराधों में से किसी के पीड़ितों , आदि , महिलाओं के खिलाफ विशेष रूप से निर्देशित कर रहे हैं जो अपराधों , ' महिलाओं के खिलाफ अपराध ' के रूप में की विशेषता है ' धोखा ' हो सकता है . ये मोटे तौर पर दो श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृत कर रहे हैं .

( 1) अपराध भारतीय दंड संहिता (आईपीसी ) के तहत पहचान

( मैं ) बलात्कार (धारा 376 आईपीसी)
( ii) विभिन्न प्रयोजनों के लिए अपहरण और अपहरण (धारा 363-373 )
दहेज के लिए ( iii) हत्या, दहेज हत्या या उनके प्रयास (धारा 302/304-B ​​आईपीसी)
( iv) अत्याचार , मानसिक और शारीरिक दोनों (धारा 498 ए आईपीसी)
( v) छेड़छाड़ (धारा 354 आईपीसी)
( vi) यौन उत्पीड़न (धारा 509 आईपीसी)
लड़कियों के (सात) आयात ( उम्र के ऊपर से 21 साल )

(2 ) अपराधों विशेष कानून ( SLL ) के तहत पहचान

सभी कानूनों लिंग विशिष्ट नहीं कर रहे हैं, महिलाओं को प्रभावित कानून के प्रावधानों में काफी समय समय पर समीक्षा की गई है और संशोधन के उभरते आवश्यकताओं के साथ तालमेल रखने के लिए किया जाता है. महिलाओं और उनके हितों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान किया है जो कुछ काम कर रहे हैं :

( i) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम , 1948
( ii) बागान श्रम अधिनियम, 1951
(iii ) परिवार न्यायालय अधिनियम , 1954
( iv) विशेष विवाह अधिनियम , 1954
( v) हिंदू विवाह अधिनियम , 1955
(vi ) 2005 में संशोधन के साथ हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम , 1956
(सात) अनैतिक व्यापार ( निवारण ) अधिनियम, 1956
(आठ) मातृत्व लाभ अधिनियम , 1961 (1995 में संशोधित )
(नौ) दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961
गर्भावस्था अधिनियम (x ) मेडिकल टर्मिनेशन , 1971
( ग्यारहवीं ) ठेका श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम , 1976
( बारहवीं ) समान पारिश्रमिक अधिनियम , 1976
बाल विवाह अधिनियम , 2006 की ( तेरहवीं ) निषेध
(चौदह ) आपराधिक कानून ( संशोधन) अधिनियम , 1983
( xv) इकाइयां (संशोधन) अधिनियम, 1986
महिलाओं की ( XVI ) अश्लील प्रतिनिधित्व (निषेध ) अधिनियम, 1986
सती की (सत्रह) आयोग ( निवारण) अधिनियम , 1987
(अठारह) घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं का संरक्षण

महिलाओं के लिये 3 . विशेष पहल

महिलाओं के लिए (i ) राष्ट्रीय आयोग

जनवरी 1992 में, सरकार ने सेट अप इस सांविधिक निकाय आदि जहां भी आवश्यक संशोधन करने के लिए सुझाव मौजूदा कानून , समीक्षा, महिलाओं के लिए प्रदान की संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों का अध्ययन करने और निगरानी के लिए एक विशिष्ट जनादेश के साथ

स्थानीय स्वशासन में महिलाओं के लिए ( द्वितीय ) रिज़र्वेशन
संसद द्वारा 1992 में पारित 73 वें संविधान संशोधन अधिनियमों ग्रामीण क्षेत्रों या शहरी क्षेत्रों में है कि क्या स्थानीय निकायों के सभी निर्वाचित कार्यालयों में महिलाओं के लिए कुल सीटों की एक तिहाई करता है.

( iii) राष्ट्रीय बालिका के लिए कार्रवाई की योजना ( 1991-2000 )
कार्रवाई की योजना अस्तित्व , संरक्षण और बालिकाओं के लिए एक बेहतर भविष्य के निर्माण की अंतिम उद्देश्य से बालिकाओं के विकास को सुनिश्चित करने के लिए है .

महिला सशक्तिकरण , 2001 के लिए (चार) राष्ट्रीय नीति

मानव संसाधन विकास मंत्रालय में महिला एवं बाल विकास विभाग ने वर्ष 2001 में एक "महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय नीति " तैयार की है . इस नीति का लक्ष्य उन्नति , विकास और महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में लाने के लिए है .

दहेज उत्पीड़न से संबंधित कानून का हाल के दिनों में जबर्दस्त दुरुपयोग हो रहा है। लोगों के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हो रहा है। कई बार धारा-498ए के जरिए उगाही तक की जाती है। कोर्ट को पता है कि यह लीगल टेररिजम की तरह है।

ये टिप्पणी अदालत ने दहेज उत्पीड़न के एक मामले में सास, ससुर, ननद, देवर और देवर की महिला फ्रेंड को आरोपमुक्त करते हुए की। अडिशनल सेशन जज कामिनी लॉ ने कहा कि सेक्शन 498ए (दहेज उत्पीड़न) उगाही, करप्शन और मानवाधिकार के उल्लंघन का जरिया बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे कानूनी आतंकवाद (लीगल टेररिजम) की संज्ञा देते हुए कहा था कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। यह कानून बदला लेने और वसूली के लिए नहीं, गलत लोगों को सजा दिलाने के लिए है। कई बार पीड़िता गुमराह होकर तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। इससे जिन लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता, उन्हें भी आरोपी बना दिया जाता है। जैसे इस मामले में किया गया। कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता महिला शादी के बाद 12 दिन ही ससुराल में रही और इस दौरान उसने सभी को फंसाने की कोशिश की। उसने देवर की महिला दोस्त को भी नहीं छोड़ा। भला देवर की दोस्त दहेज के लिए कैसे इंट्रेस्टेड हो सकती है।

जज कामिनी लॉ ने कहा कि निजी मकसद पूरा करने के लिए अदालतें प्लैटफॉर्म नहीं बन सकतीं। यह कोर्ट की ड्यूटी है कि वह सुनिश्चित करे कि पति की गलती के कारण उसके रिश्तेदारों को न फंसाया जा सके।
अनुच्छेद 39 राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के कुछ सिद्धांत तय करता है, जिनमें सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना, स्त्री और पुरुषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन, उचित कार्य दशाएं, कुछ ही लोगों के पास धन तथा उत्पादन के साधनों के संकेंद्रन में कमी लाना और सामुदायिक संसाधनों का “सार्वजनिक हित में सहायक होने” के लिए वितरण करना शामिल हैं।[81] ये धाराएं, राज्य की सहायता से सामाजिक क्रांति लाकर, एक समतावादी सामाजिक व्यवस्था बनाने तथा एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के संवैधानिक उद्देश्यों को चिह्नांकित करती हैं और इनका खनिज संसाधनों के साथ-साथ सार्वजनिक सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण को समर्थन देने के लिए उपयोग किया गया है।[
चायती राज में प्रत्येक स्तर पर कुल सीटों की संख्या की एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं, बिहार के मामले में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।[110][111] जम्मू एवं काश्मीर तथा नागालैंड को छोड़ कर सभी राज्यों और प्रदेशों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया है।[104] भारत की विदेश नीति निदेशक सिद्धांतों से प्रभावित है। भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र के शांति कायम करने के 37 अभियानों में भाग लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग दिया है।[112]
1985-1986) ने भारत में एक राजनीतिक तूफान भड़का दिया था जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक मुस्लिम महिला शाह बानो जिसे 1978 में उसके पति द्वारा तलाक दे दिया गया था, सभी महिलाओं के लिए लागू भारतीय विधि के अनुसार अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने की हकदार थी। इस फैसले ने मुस्लिम समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी जिसने मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू करने की मांग की और प्रतिक्रिया में संसद ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित कर दिया।[113] इस अधिनियम ने आगे आक्रोश भड़काया, न्यायविदों, आलोचकों और नेताओं ने आरोप लगाया कि धर्म या लिंग के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समानता के मौलिक अधिकार की विशिष्ट धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए अवहेलना की गई थी। 
सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं हैं. वे पारिश्रमिक और कार्यस्थल पर अपनी स्थिति के मामले में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी पर हैं.
ग्रामीण भारत में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में कुल महिला श्रमिकों के अधिक से अधिक 89.5% तक को रोजगार दिया जाता है.[37] कुल कृषि उत्पादन में महिलाओं की औसत भागीदारी का अनुमान कुल श्रम का 55% से 66%% तक है. 1991 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में डेयरी उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी कुल रोजगार का 94% है. वन-आधारित लघु-स्तरीय उद्यमों में महिलाओं की संख्या कुल कार्यरत श्रमिकों का 51% है.[37]
श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ सबसे प्रसिद्ध महिला व्यापारिक सफलता की कहानियों में से एक है. 2006 में भारत की पहली बायोटेक कंपनियों में से एक - बायोकॉन की स्थापना करने वाली किरण मजूमदार-शॉ को भारत की सबसे अमीर महिला का दर्जा दिया गया था. ललिता गुप्ते और कल्पना मोरपारिया (दोनों भारत की केवल मात्र ऐसी महिला व्यवासियों में शामिल हैं जिन्होंने फ़ोर्ब्स की दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में अपनी जगह बनायी है) भारत के दूसरे सबसे बड़े बैंक, आईसीआईसीआई बैंक को संचालित करती हैं.[40]
against--( महिलाओं की सुरक्षा के कानूनों के कमजोर कार्यान्वयन के कारण उन्हें आज भी ज़मीन और संपत्ति में अपना अधिकार नहीं मिल पाता है.[41] वास्तव में जब जमीन और संपत्ति के अधिकारों की बात आती है तो कुछ क़ानून महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं.
1956 के दशक के मध्य के हिन्दू पर्सनल लॉ (हिंदू, बौद्ध, सिखों और जैनों पर लिए लागू) ने महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया. हालांकि बेटों को पैतृक संपत्ति में एक स्वतंत्र हिस्सेदारी मिलती थी जबकि बेटियों को अपने पिता से प्राप्त संपत्ति के आधार पर हिस्सेदारी दी जाती थी. इसलिए एक पिता अपनी बेटी को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से को छोड़कर उसे अपनी संपत्ति से प्रभावी ढंग से वंचित कर सकता था लेकिन बेटे को अपने स्वयं के अधिकार से अपनी हिस्सेदारी प्राप्त होती थी. इसके अतिरिक्त विवाहित बेटियों को, भले ही वह वैवाहिक उत्पीड़न का सामना क्यों ना कर रही हो उसे पैतृक संपत्ति में कोई आवासीय अधिकार नहीं मिलता था. 2005 में हिंदू कानूनों में संशोधन के बाद महिलाओं को अब पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाते हैं.[42])
2013 अक्टूबर/नवंबर में भारत की लगभग आधे बैंक व वित्त उद्योग की अध्यक्षता महिलाओं के हाथ में थी।

भारत में पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से दस लाख से अधिक महिलाओं ने सक्रिय रूप से राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया है.[41] 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के अनुसार सभी निर्वाचित स्थानीय निकाय अपनी सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं. हालांकि विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है, इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी प्रशासन और निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है.[25]
दहेज उत्पीड़न से संबंधित कानून का हाल के दिनों में जबर्दस्त दुरुपयोग हो रहा है। लोगों के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हो रहा है। कई बार धारा-498ए के जरिए उगाही तक की जाती है। कोर्ट को पता है कि यह लीगल टेररिजम की तरह है।

ये टिप्पणी अदालत ने दहेज उत्पीड़न के एक मामले में सास, ससुर, ननद, देवर और देवर की महिला फ्रेंड को आरोपमुक्त करते हुए की। अडिशनल सेशन जज कामिनी लॉ ने कहा कि सेक्शन 498ए (दहेज उत्पीड़न) उगाही, करप्शन और मानवाधिकार के उल्लंघन का जरिया बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे कानूनी आतंकवाद (लीगल टेररिजम) की संज्ञा देते हुए कहा था कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। यह कानून बदला लेने और वसूली के लिए नहीं, गलत लोगों को सजा दिलाने के लिए है। कई बार पीड़िता गुमराह होकर तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। इससे जिन लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता, उन्हें भी आरोपी बना दिया जाता है। जैसे इस मामले में किया गया। कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता महिला शादी के बाद 12 दिन ही ससुराल में रही और इस दौरान उसने सभी को फंसाने की कोशिश की। उसने देवर की महिला दोस्त को भी नहीं छोड़ा। भला देवर की दोस्त दहेज के लिए कैसे इंट्रेस्टेड हो सकती है।

जज कामिनी लॉ ने कहा कि निजी मकसद पूरा करने के लिए अदालतें प्लैटफॉर्म नहीं बन सकतीं। यह कोर्ट की ड्यूटी है कि वह सुनिश्चित करे कि पति की गलती के कारण उसके रिश्तेदारों को न फंसाया जा सके।
अनुच्छेद 39 राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के कुछ सिद्धांत तय करता है, जिनमें सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना, स्त्री और पुरुषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन, उचित कार्य दशाएं, कुछ ही लोगों के पास धन तथा उत्पादन के साधनों के संकेंद्रन में कमी लाना और सामुदायिक संसाधनों का “सार्वजनिक हित में सहायक होने” के लिए वितरण करना शामिल हैं।[81] ये धाराएं, राज्य की सहायता से सामाजिक क्रांति लाकर, एक समतावादी सामाजिक व्यवस्था बनाने तथा एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के संवैधानिक उद्देश्यों को चिह्नांकित करती हैं और इनका खनिज संसाधनों के साथ-साथ सार्वजनिक सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण को समर्थन देने के लिए उपयोग किया गया है।[
चायती राज में प्रत्येक स्तर पर कुल सीटों की संख्या की एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं, बिहार के मामले में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।[110][111] जम्मू एवं काश्मीर तथा नागालैंड को छोड़ कर सभी राज्यों और प्रदेशों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया है।[104] भारत की विदेश नीति निदेशक सिद्धांतों से प्रभावित है। भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र के शांति कायम करने के 37 अभियानों में भाग लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग दिया है।[112]
1985-1986) ने भारत में एक राजनीतिक तूफान भड़का दिया था जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक मुस्लिम महिला शाह बानो जिसे 1978 में उसके पति द्वारा तलाक दे दिया गया था, सभी महिलाओं के लिए लागू भारतीय विधि के अनुसार अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने की हकदार थी। इस फैसले ने मुस्लिम समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी जिसने मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू करने की मांग की और प्रतिक्रिया में संसद ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित कर दिया।[113] इस अधिनियम ने आगे आक्रोश भड़काया, न्यायविदों, आलोचकों और नेताओं ने आरोप लगाया कि धर्म या लिंग के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समानता के मौलिक अधिकार की विशिष्ट धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए अवहेलना की गई थी। 
सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं हैं. वे पारिश्रमिक और कार्यस्थल पर अपनी स्थिति के मामले में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी पर हैं.
ग्रामीण भारत में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में कुल महिला श्रमिकों के अधिक से अधिक 89.5% तक को रोजगार दिया जाता है.[37] कुल कृषि उत्पादन में महिलाओं की औसत भागीदारी का अनुमान कुल श्रम का 55% से 66%% तक है. 1991 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में डेयरी उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी कुल रोजगार का 94% है. वन-आधारित लघु-स्तरीय उद्यमों में महिलाओं की संख्या कुल कार्यरत श्रमिकों का 51% है.[37]
श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ सबसे प्रसिद्ध महिला व्यापारिक सफलता की कहानियों में से एक है. 2006 में भारत की पहली बायोटेक कंपनियों में से एक - बायोकॉन की स्थापना करने वाली किरण मजूमदार-शॉ को भारत की सबसे अमीर महिला का दर्जा दिया गया था. ललिता गुप्ते और कल्पना मोरपारिया (दोनों भारत की केवल मात्र ऐसी महिला व्यवासियों में शामिल हैं जिन्होंने फ़ोर्ब्स की दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में अपनी जगह बनायी है) भारत के दूसरे सबसे बड़े बैंक, आईसीआईसीआई बैंक को संचालित करती हैं.[40]
against--( महिलाओं की सुरक्षा के कानूनों के कमजोर कार्यान्वयन के कारण उन्हें आज भी ज़मीन और संपत्ति में अपना अधिकार नहीं मिल पाता है.[41] वास्तव में जब जमीन और संपत्ति के अधिकारों की बात आती है तो कुछ क़ानून महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं.
1956 के दशक के मध्य के हिन्दू पर्सनल लॉ (हिंदू, बौद्ध, सिखों और जैनों पर लिए लागू) ने महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया. हालांकि बेटों को पैतृक संपत्ति में एक स्वतंत्र हिस्सेदारी मिलती थी जबकि बेटियों को अपने पिता से प्राप्त संपत्ति के आधार पर हिस्सेदारी दी जाती थी. इसलिए एक पिता अपनी बेटी को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से को छोड़कर उसे अपनी संपत्ति से प्रभावी ढंग से वंचित कर सकता था लेकिन बेटे को अपने स्वयं के अधिकार से अपनी हिस्सेदारी प्राप्त होती थी. इसके अतिरिक्त विवाहित बेटियों को, भले ही वह वैवाहिक उत्पीड़न का सामना क्यों ना कर रही हो उसे पैतृक संपत्ति में कोई आवासीय अधिकार नहीं मिलता था. 2005 में हिंदू कानूनों में संशोधन के बाद महिलाओं को अब पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाते हैं.[42])
2013 अक्टूबर/नवंबर में भारत की लगभग आधे बैंक व वित्त उद्योग की अध्यक्षता महिलाओं के हाथ में थी।

भारत में पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से दस लाख से अधिक महिलाओं ने सक्रिय रूप से राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया है.[41] 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के अनुसार सभी निर्वाचित स्थानीय निकाय अपनी सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं. हालांकि विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है, इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी प्रशासन और निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है.[25]