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बुधवार, 27 जुलाई 2011

'हलीम' उवाच

उसी की तरहा मुझे सारा ज़माना चाहे ,

वो मेरा होने से ज्यादा मुझे पाना चाहे ?.  
 
मेरी पलकों से फिसल जाता है चेहरा तेरा ,

ये मुसाफिर तो कोई और ठिकाना चाहे .  
 
एक बनफूल था इस शहर में वो भी ना रहा, 

कोई अब किस के लिए लौट के आना चाहे . 
 
ज़िन्दगी हसरतों के साज़ पे सहमा-सहमा, 

वो तराना है जिसे दिल नहीं गाना चाहे .  
 
हम अपने आप से कुछ इस तरह हुए रुखसत, 
साँस को छोड़ दिया जिस तरफ जाना चाहे .

 by- Dr. Kumar Vishvas