यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 4 मई 2014

नारी-सुरक्षा के लिए बनते कानून और उनकी वास्तविकता

'हलीम' उवाच

नारी-सुरक्षा के लिए बनते कानून और उनकी वास्तविकता

भारत का संविधान सभी भारतीय नारियों को समान अधिकार, समान अवसर, समान सुविधाएँ और समान सुरक्षा उपलब्ध कराने की गारंटी देता है. हमारा संविधान महिलाओं की गरिमापूर्ण स्थिति और सुरक्षित जीवन का प्रावधान करता है, परन्तु भारतीय नारी का यह दुर्भाग्य ही है कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक उसके जीवन की सुरक्षा कागज़ों में ही सिमटकर रह गयी. कई सरकारें आईं और गयीं, नारी सुरक्षा के लिए कानून भी बने; लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उनका कुछ खास लाभ महिलाओं को नहीं मिल सका. पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में वृद्धि हुई है वह एक बात स्पष्ट करती है कि शहरों या गावों में कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. महिलाओं के साथ लूट, हत्या, अपहरण, बलात्कार, यौन-उत्पीड़न, छेड़-छाड़ की घटनाएँ पिछले वर्षों में अंधाधुंध बढ़ी हैं. खास बात तो यह है कि भीड़-भाड़ वाले स्थानों या व्यस्त सड़कों पर भी अब ऐसी घटनाएँ होने लगी हैं. वर्तमान में सार्वजनिक स्थानों, बाज़ारों या कार्यस्थलों पर ही नहीं बल्कि घरों में भी नारियाँ सुरक्षित नहीं रह गयी हैं.
दोस्तों! नारियों की इस विचारणीय स्थिति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हमारी प्रशासन व्यवस्था और सरकार है. कोई भी नया कानून या व्यवस्था तभी कारगर हो सकती है जब यथार्थ के धरातल पर उसका अनुपालन सही ढंग से हो. नारी सुरक्षा के लिए संविधान-निर्माण के समय से लेकर अब तक कई कानून बने पर उनके उचित क्रियान्वयन न हो पाने के कारण स्थिति जस की तस रह गई. भारतीय संविधान में नारियों को कई विशेषाधिकार दिए गए हैं. जैसे- अनुच्छेद-14 में महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार करने, अनुच्छेद-39(a) में उन्हें न्याय व क़ानूनी सहायता उपलब्ध कराने और अनुच्छेद-51(a) में महिलाओं की गरिमा बनाये रखने तथा अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने का प्रावधान है, परन्तु खेद है कि हमारा समाज उनके इन संवैधानिक अधिकारों की रक्षा भी नहीं कर पाता. कभी समाज संविधान की गरिमा को तोड़ता है तो कभी सामाजिक संस्थाएँ उनकी रक्षा को लेकर लापरवाही बरतती हैं. या कभी-कभी लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के डर से खुद महिलाएं ही पीछे हट जाती हैं. ऐसे कुछ मौकों पर महिलाओं में जागरूकता की कमी भी आड़े आती है.
लोकतान्त्रिक भारत में 'दहेज़ उत्पीड़न' नारियों पर होने वाले सबसे बड़े अत्याचार के रूप में सामने आया. इससे निपटने के लिए संसद ने 1961 में दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम पारित किया, परन्तु आज भी न जाने कितनी ही स्त्रियाँ दहेज़ रूपी दानव का शिकार होती हैं. इसका सबसे बड़ा दोषी हमारा समाज है जो दहेज़ के लोभ में नारियों पर ज़ुल्म करता है; तो वहीं सरकार का सुस्त रवैया भी एक प्रमुख कारण है. इसी प्रकार घरेलू हिंसा को रोकने के लिए भी 'घरेलू हिंसा अधिनियम' 2005 में पारित किया गया. लेकिन वास्तविक स्थिति यह है की आज भी घरेलू कलह या उत्पीड़न के कारण सैकड़ों नारियाँ जान दे देती हैं और इनमें परिवार की महिला सदस्य ही मुख्य भूमिका में होती हैं. परिवारों में उत्तराधिकार की परंपरा और अधिकारों को लेकर बढ़ता वैमनस्य इसका प्रमुख कारण है. ......लेकिन इन सब मामलों को छोटी-मोटी शिकायतों से अधिक गंभीरता से नहीं लिया जाता.
समाज के बदलते आधुनिक स्वरूप में नारियों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप 'यौन-उत्पीड़न' है जो उन्हें शारीरिक व मानसिक दोनों कष्ट देता है. इसे रोकने के लिए 'यौन-उत्पीड़न- रोकथाम, निषेध और निवारण अधिनियम' 2013 में पारित किया गया, परन्तु उचित निगरानी के अभाव में इस पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका. होना यह चाहिए था कि सार्वजनिक स्थलों, निजी व सरकारी कार्यालयों में कैमरों द्वारा निगरानी कर ऐसे मामलों में प्रशासन स्वतः संज्ञान लेता और कार्यवाही करता जबकि इसके बजाय यौन उत्पीड़न की सूचना को मामूली छेड़छाड़ मानकर उसे ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाता है. इसी उदासीनता के कारण आज बलात्कार की घटनाएँ हो रही हैं जो साल-दर-साल  बढ़ती ही जा रही हैं.
हालाँकि नारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने जनवरी 2013 में दो हेल्पलाइन  '181' और '1091' की शुरुआत की, जहाँ महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी प्रकार के अपराध की सूचना दी जा सकती है; लेकिन उसके प्रचार की कमी और ढीली तथा अव्यवस्थित कार्यप्रणाली के चलते 2-3 महीने बाद ही वह सुस्त पड़ गयी. कई बार तो इन हेल्पलाइनों में कॉल सुनने वाले कर्मचारी पीड़िता से अश्लील वार्तालाप पर उतर आते हैं और बेचारी महिला अपनी व्यथा की शिकायत मन में ही दबाकर उस अत्याचार को अपनी नियति मानकर चुप रह जाती है. नतीजतन आज ये हेल्पलाइनें सिर्फ नमूना बनकर रह गई हैं. इसी प्रकार राज्य सरकारों ने महिलाओं की सुरक्षा और निजता को ध्यान में रखकर महिला पुलिस का गठन किया था परन्तु पुलिस विभाग की टालू व अराजक कार्यशैली के कारण उसका उद्देश्य ही समाप्त हो गया और आज उसका जो हश्र है वह किसी से छिपा नहीं है.
कुल मिलाकर आज की वर्तमान स्थिति यह है कि नारी सुरक्षा के नाम पर राजनीति तो खूब होती है और कानून भी बहुत हैं, परन्तु न तो उनका सही ढंग से क्रियान्वयन होता है और न ही उनका पालन कराने वाले संवेदनशील हैं. इस कारण नारियाँ आज बेहद असुरक्षित हो गई हैं और लोकलाज के भय तथा सुस्त प्रशासनिक रवैये के कारण अपने लिए बनाये गए किसी भी कानून का उपभोग न कर पाते हुए भयग्रस्त माहौल में जीने को विवश हैं.

1 टिप्पणी:

  1. ये हमारे लिए एक बहुत शर्मनाक बात है की हम अपनी लड़कियों को सुरक्षित नहीं कर सकते। उनको मजबूत बनाने के वजाए उनको झुकने के लिए मजबूर करते है। महिलायो की सुरक्षा बहुत जरुरी है हम सब को मिलकर महिलाओ को मजबूत बनाना चाहिए

    जवाब देंहटाएं

अपनी प्रतिक्रिया दें।