'हलीम' उवाच
विदेशी संस्थागत निवेश को बढ़ाने के लिए सरकार ने इनको भारत के म्यूचुअल फंड्स में निवेश करने का अवसर दिया है, जो पहले नहीं था। इससे भारत में विदेशी पूंजी का निवेश बढ़ेगा। इससे हमको चालू खाते का घाटा पूरा करने में मदद मिलेगी। सरकार ने सामाजिक आर्थिक कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों में खर्च में वृद्धि की है, लेकिन मुद्रास्फीति के संबंध में व्यक्तिगत करदाताओं को तो कुछ राहत दी गई है, लेकिन इनका आबादी में केवल तीन प्रतिशत अंश है। आम लोगों के उपभोग की वस्तुओं की कीमतों की वृद्धि के संबंध में बजट में कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। वर्ष 2011-12 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर भावी मानसून पर निर्भर करेगी। 2010-11 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर 5.4 प्रतिशत हासिल की गई थी, जिसे 2011-12 में प्राप्त करना आसान नहीं होगा। विश्व में क्रूड तेल के भाव 110 डॉलर प्रति बैरल से अधिक हो गए हैं। सरकार को सब्सिडी पर खर्च कम करने के लिए भारी चुनौती का सामना करना है। देखना यह है कि विश्व के बदलते माहौल में सरकार अर्थव्यवस्था की स्थिति को कैसे संतुलित रख पाती है। इसके लिए प्रशासनिक अभावों, क्रियान्वयन के अभावों व नैतिकता के अभावों को दूर करना होगा। क्या सरकार ऎसा कुछ कर पाएगी? यहां 'प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति', है जो भारत में विदेशी निवेश के विभिन्न पक्षों का नियंत्रण करती है। इस नीति का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी अनुमत क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करना और साथ ही इसके विकास प्रभाव को विसारित करना है। लगभग सभी भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश मुक्त रूप से अनुमत है। यह दो मार्गों से किया जा सकता है जो हैं स्वचालित मार्ग और सरकारी मार्ग। पहले मार्ग के तहत विदेशी निवेशकों को भारतीय रिजर्व बैंक या भारत सरकार से निवेश की अनुमति नहीं लेनी होती है। जबकि दूसरे मार्ग में विदेशी निवेश प्रवर्तन मंडल, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार का पूर्व अनुमोदन लेकर ही निवेश किया जा सकता है। ये शर्तें विदेशी भारतीयों पर भी लागू हुई है। विदेशी मुद्रा की कमी भारत क़ा एक प्रमुख संकट थी, विदेशी ऋणों पर चूक को कम करने के लिए प्रतिक्रिया स्वरुप भारत ने नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था को खोला |. घरेलू और बाहरी क्षेत्र नीति की आंशिक रूप से तत्काल जरूरत थी और आंशिक रूप से बहुपक्षीय संगठनों की मांग से प्रेरित उपायों में निहित थी |. नई शासन नीति ने मौलिक, खुला और बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था को आगे बढाया|.नौवें दशक के प्रारंभ में उदारीकरण और भूमंडलीकरण की रणनीति के हिस्से में प्रमुख रूप से शुरू किये गए उपायों में औद्योगिक लाइसेंसिंग व्यवस्था को निरस्त किया जाना , तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या में कमी करना शामिल
है |, एकाधिकार तथा व्यापार अवरोधक व्यवहार अधिनियम में संशोधन, विभिन्न निजीकरण कार्यक्रम, टैरिफ दरों में कमी और आर्थिक व्यवस्था को अधिक बदलने के लिए बाज़ार द्वारा निर्धारित विनिमय दर जो बाजार के प्रति उन्मुख है होना शामिल है |.चालू खाता लेनदेन में एक स्थिर उदारीकरण किया गया है, अधिक से अधिक क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और पोर्टफोलियो निवेश में दूरसंचार, सड़कों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, बीमा और अन्य प्रमुख क्षेत्रों को विदेशी निवेशकों की प्रविष्टि की सुविधा के लिए खोला गया है|
१२- २०११ - की पहली छमाही के दौरान विदेशी संस्थागत निवेश १ ,३४६ अरब अमरीकी डालर था जो की पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि में २३ ,७९६अरब अमरीकी डालर था |
१२-२०११ की पहली छमाही के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, तथा, पिछले वर्ष की इसी अवधि में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तुलनात्मक अध्यन से पता चलता है की इसमें
७,०४० अरब अमरीकी डालर से १२ ,३१0 अरब अमरीकी डालर तक की वृद्धि हुई है.जो की सराहनिए है |
विदेशी संस्थागत निवेश को बढ़ाने के लिए सरकार ने इनको भारत के म्यूचुअल फंड्स में निवेश करने का अवसर दिया है, जो पहले नहीं था। इससे भारत में विदेशी पूंजी का निवेश बढ़ेगा। इससे हमको चालू खाते का घाटा पूरा करने में मदद मिलेगी। सरकार ने सामाजिक आर्थिक कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों में खर्च में वृद्धि की है, लेकिन मुद्रास्फीति के संबंध में व्यक्तिगत करदाताओं को तो कुछ राहत दी गई है, लेकिन इनका आबादी में केवल तीन प्रतिशत अंश है। आम लोगों के उपभोग की वस्तुओं की कीमतों की वृद्धि के संबंध में बजट में कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। वर्ष 2011-12 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर भावी मानसून पर निर्भर करेगी। 2010-11 में कृषिगत उत्पादन की वृद्धि दर 5.4 प्रतिशत हासिल की गई थी, जिसे 2011-12 में प्राप्त करना आसान नहीं होगा। विश्व में क्रूड तेल के भाव 110 डॉलर प्रति बैरल से अधिक हो गए हैं। सरकार को सब्सिडी पर खर्च कम करने के लिए भारी चुनौती का सामना करना है। देखना यह है कि विश्व के बदलते माहौल में सरकार अर्थव्यवस्था की स्थिति को कैसे संतुलित रख पाती है। इसके लिए प्रशासनिक अभावों, क्रियान्वयन के अभावों व नैतिकता के अभावों को दूर करना होगा। क्या सरकार ऎसा कुछ कर पाएगी? यहां 'प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति', है जो भारत में विदेशी निवेश के विभिन्न पक्षों का नियंत्रण करती है। इस नीति का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी अनुमत क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करना और साथ ही इसके विकास प्रभाव को विसारित करना है। लगभग सभी भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश मुक्त रूप से अनुमत है। यह दो मार्गों से किया जा सकता है जो हैं स्वचालित मार्ग और सरकारी मार्ग। पहले मार्ग के तहत विदेशी निवेशकों को भारतीय रिजर्व बैंक या भारत सरकार से निवेश की अनुमति नहीं लेनी होती है। जबकि दूसरे मार्ग में विदेशी निवेश प्रवर्तन मंडल, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार का पूर्व अनुमोदन लेकर ही निवेश किया जा सकता है। ये शर्तें विदेशी भारतीयों पर भी लागू हुई है। विदेशी मुद्रा की कमी भारत क़ा एक प्रमुख संकट थी, विदेशी ऋणों पर चूक को कम करने के लिए प्रतिक्रिया स्वरुप भारत ने नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था को खोला |. घरेलू और बाहरी क्षेत्र नीति की आंशिक रूप से तत्काल जरूरत थी और आंशिक रूप से बहुपक्षीय संगठनों की मांग से प्रेरित उपायों में निहित थी |. नई शासन नीति ने मौलिक, खुला और बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था को आगे बढाया|.नौवें दशक के प्रारंभ में उदारीकरण और भूमंडलीकरण की रणनीति के हिस्से में प्रमुख रूप से शुरू किये गए उपायों में औद्योगिक लाइसेंसिंग व्यवस्था को निरस्त किया जाना , तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या में कमी करना शामिल
है |, एकाधिकार तथा व्यापार अवरोधक व्यवहार अधिनियम में संशोधन, विभिन्न निजीकरण कार्यक्रम, टैरिफ दरों में कमी और आर्थिक व्यवस्था को अधिक बदलने के लिए बाज़ार द्वारा निर्धारित विनिमय दर जो बाजार के प्रति उन्मुख है होना शामिल है |.चालू खाता लेनदेन में एक स्थिर उदारीकरण किया गया है, अधिक से अधिक क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और पोर्टफोलियो निवेश में दूरसंचार, सड़कों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, बीमा और अन्य प्रमुख क्षेत्रों को विदेशी निवेशकों की प्रविष्टि की सुविधा के लिए खोला गया है|
विश्व के निवेशक सदा सुरक्षित निवेश करने
के स्थान की खोज में रहते हैं। गृहिणी अपनी बचत को सरकारी बैंक में फिक्स
डिपॉजिट में रखती हैं। वे शेयर या प्रापर्टी नहीं खरीदतीं। इसी प्रकार
विश्व के तमाम निवेशक सुरक्षित निवेश की खोज में लगे रहते हैं। द्वितीय
विश्व युद्ध के पहले ब्रिटिश पाउंड को सुरक्षित माना जाता था। विश्व युद्ध
के बाद अमेरिकी डॉलर ने विश्व मुद्रा का स्थान ले लिया। दस साल पहले तक
निवेशक मानते थे कि अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांड में निवेश की गई रकम
सुरक्षित रहेगी। अमेरिका की अर्थव्यवस्था विशाल होने के साथ-साथ तेजी से
बढ़ रही थी। लोगों को इसके टूटने का तनिक भी भय नहीं था। अत: सुरक्षा की
चाह रखने वाले निवेशक अमेरिकी कंपनियों के शेयर, अमेरिकी प्रापर्टी अथवा
अमेरिकी सरकार द्वारा जारी बांड खरीद लेते थे। महंगाई बढ़ने का मूल कारण मांग और आपूर्ति का असंतुलन माना जाता है. जब माँग बढ़ जाती है और आपूर्ति कम हो जाती है तो महंगाई बढ़
जाती है. लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में ये कितना सही है?
क्या किसी वस्तु की सप्लाई कम हुई है? देश में सीमेंट, स्टील या खाद्यान्न का उत्पादन पिछले सालों के मुकाबले में कम नहीं हुआ
है. देश में महँगाई बढ़ने का प्रमुख कारण अधिक विदेशी पूँजी निवेश का आगमन है और अर्थव्यव्यवस्था में आई तेज़ी है.देश में पहले की तुलना मे, पिछले तीन-चार
महीनों में लगभग दस अरब डालर का विदेशी निवेश हुआ है. जबकि शेयर बाज़ार में
3-4 अरब डॉलर
की ही बिकवाली हुई है. विदेशी पूँजी का यह प्रवाह भारतीय
अर्थव्यवस्था में तेज़ी बना रहा है और मांग पैदा कर रहा है, जिससे महंगाई
बढ़ रही है.
इस समस्या का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू ये है
कि भारत सरकार आय़ात-निर्यात के असंतुलन को हल करने की कोशिश से केवल घरेलू
और विश्व
बाज़ार के मूल्यों में संतुलन बना सकती है. लेकिन जिन वस्तुओं
के दाम दुनिया भर में बढ़ रहे हैं उन पर सरकार के उठाए कदमों का
कोई प्रभाव नहीं पडे़गा.
घरेलू मांग को रोकने से यह व्यवस्था भी अप्रभावी होगी क्योंकि मौलिक समस्या ये है कि सरकार विदेशी निवेश को नहीं रोक पा रही है.
इस तरह भारत में उत्पादन के बावजूद विश्व की पूंजी का भारत की ओर पलायन महंगाई को और बढ़ा रहा है.
आज जिस तरह अमेरिकन अर्थव्यवस्था की मंदी की स्थिति संसार के अनेक देशों की
अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रही है, वह हमारे लिए भी खतरे की घंटी है।
बेशक, अन्य देशों की तरह हम भी विदेशी आर्थिक परिवर्तनों से बच नहीं सकते।
फिर भी हमें कोई न कोई तरीका तो ढूंढऩा ही पड़ेगा कि विदेशी आर्थिक
परिवर्तनों का हम पर न्यूनतम प्रभाव पड़े। जब अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी,
जापान, चीन आदि देशों में शेयर मूल्यों की कमी का प्रभाव हमारी
अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत पड़ता है तो ऐसा लगता है कि हमें किसी ऐसे काम
की सजा मिली है, जो हमने किया ही नहीं। भारत में आसमान छूती कीमतें
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण तथा वैश्वीकरण का ही परिणाम हैं। ऐसे में
अर्थव्यवस्था में कुछ कंट्रोल सिस्टम तो लागू करना ही होगा। हमें और तेजी
से आयात-प्रतिस्थापन की ओर ध्यान देना पड़ेगा, निर्यात में वृद्धि तथा आयात
में कमी करनी होगी, ताकि हमारे पास अधिक विदेशी मुद्रा हो। पूंजी निर्माण
को और प्रोत्साहित करना होगा। जहां तक हो सके अपनी अर्थव्यवस्था की नकेल
अपने हाथों में हो। मिश्रित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाए। एक बार
फिर स्वदेशी लहर चलाई जाए। इन बातों से हमारी विदेशों पर निर्भरता तथा
हमारे शेयर बाजार पर विदेशी प्रभाव कम हो जाएगा।
१२- २०११ - की पहली छमाही के दौरान विदेशी संस्थागत निवेश १ ,३४६ अरब अमरीकी डालर था जो की पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि में २३ ,७९६अरब अमरीकी डालर था |
१२-२०११ की पहली छमाही के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, तथा, पिछले वर्ष की इसी अवधि में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तुलनात्मक अध्यन से पता चलता है की इसमें
७,०४० अरब अमरीकी डालर से १२ ,३१0 अरब अमरीकी डालर तक की वृद्धि हुई है.जो की सराहनिए है |