'हलीम' उवाच
कभी हथेली की सूजन कभी बड़ा सा जेब खर्च,
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबूजी।
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्मा की सारी सज-धज, सब जेवर थे बाबूजी।
(पापा की 13वीं बरसी पर श्रद्धांजलि)
'हलीम' उवाच
धौंकनी सी बची उनकी छाती,
थाली में चुटकी भर नमक, और एक हरी मिर्च थीं उनकी ऑंखें।
कभी आग के फूल की तरह खिले थे पिता,और उस दिन आग की नदी में नहा रहे थे।
(आज पापा की 13वीं बरसी पर उनकी याद जो व्यथित कर रही है)