यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 30 जून 2013

PAHADON PAR PRALAY

'हलीम' उवाच

उत्तराखंड में बीते दिनों आई तबाही ने मानव समाज के सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा कर दिया है। देश के तमाम पर्यावरणविदों व विज्ञानियों में इस आपदा के कारणों पर चर्चा हो रही है। वास्तव में उत्तराखंड में बादलों का फटना एक रासायनिक प्रक्रिया का दुष्प्रभाव है। वायुमंडल में कार्बन गैसों के बढ़ते घनत्व से बादलों में co2  का संघनन अधिक होता है जिस कारण वे जब वर्षा करते हैं तो भयंकर तबाही मचाते हैं।

           पिछले कुछ दशकों से विकास के नाम पर हमने न केवल वायुमंडल में कार्बन गैसों का अंधाधुंध उत्सर्जन किया है बल्कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर स्वयं के लिए खतरे भी पैदा कर लिए हैं। उत्तराखंड जैसे स्थान बेहद संवेदनशील हैं, जहाँ प्रकृति का थोड़ा सा असंतुलन पूरे पारस्थितिक तंत्र को ही गड़बड़ कर देता है और उत्तराखंड में तो पहाड़ों को मानो चुनौती देकर बड़े-बड़े आवासीय निर्माण हुए हैं; बाज़ार विकसित किये गए हैं। इन सभी कारकों का ही प्रभाव हमें प्रलयकारी बारिश एवं बाढ़ के रूप में देखने को मिला।

शुक्रवार, 21 जून 2013

'हलीम' उवाच


घर चम्पा के फूल महकते

                (1)
अभी चाँद भी गया नहीं है,
सूरज छत पर उगा नहीं है;

पर माँ है कि जग रही है,
भोर का यौवन दिखा रही है;

देखो बेटा पेड़, परिंदे,
तितली, भौंरे, कीट, पतंगे,

मस्ती में सब आज चहकते,
घर चंपा के फूल महकते।


              (2)
मैं सुगंध के पीछे-पीछे,
आँखों को यूँ ही मींचे;

जब द्वार से बाहर आया,
उपवन को अद्भुत सा पाया;

दृश्य देख रह गया अचम्भित,
अनिल बह रहा स्वच्छ सुगन्धित;

कहाँ है वह देखूँ फिर मैंने सोचा आँख मसलते,
जिस चम्पा के फूल महकते।


                (3)
सारा उपवन खिला हुआ है,
'चन्द्र-सुधा' से धुला हुआ है;

अमलतास, आड़ू, गुलमोहर,
फैले जिन पर पुष्प मनोहर;
 
नींबू, आम, पपीता, जामुन,
महकें, नाचें, गाएँ फागुन;

मंद पवन के झोंकों से जो खड़ा है बीच लहकते,
उस पर चम्पा के फूल महकते।

                 (4)
चम्पा से हैं जुड़ी पुरानी यादें
दुःख की कुछ और सुहानी.

बाबूजी संग खेला करना,
चम्पा की डालों पर चढ़ना;

माँ जब भी चाहे नहलाना,
इसके पत्तों में छिप जाना.

छाया में इसकी किसी की बाँहों में थे बहकते,
घर चम्पा के फूल महकते।


               (5)
बरस हुए चम्पा को देखे,
लिखता रहा करम के लेखे;

आती याद जवानी अपनी,
थी मशहूर कहानी अपनी;

मुझ पर था चम्पई रंग चढ़ा,
जिसमें हूँ अब तक पला-बढ़ा;
 
उस छाया को छोड़ के क्यूँ सड़कों पर रहें सुलगते,
घर चम्पा के फूल महकते।

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
504 HIG रतनलाल नगर, कानपुर।