यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

'हलीम' उवाच


प्रकृति की ओर लौटो
(विश्व पृथ्वी दिवस पर प्रासंगिक)

कैसी विचित्र विडम्बना है कि प्रकृति के सबसे ज़िम्मेदार प्राणी मानव ने सदैव जिस प्रकृति के प्रति अपने दायित्वों की अनदेखी की, वही मानव जाति आज त्राहिमाम करती हुई मानवता की रक्षा के लिए प्रार्थनारत है, मानवता की दुहाई दे रही है। इस कोरोना संकट ने देर से ही सही पर मनुष्य को उसकी वास्तविकता बता दी है।

पिछले 2 महीनों में इस महामारी के प्रसार पर निगाह डालें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कोरोना का कहर वहाँ सबसे अधिक हुआ जहाँ जीवन अधिक विलासितायुक्त था। चाहे वह अमेरिका, चीन और यूरोपीय देश हों या फिर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे आधुनिक जीवनशैली वाले भारतीय शहर, कोरोना ने भौतिकता के आधार पर ही लोगों को निशाना बनाया। इसे इस तरह से समझिये कि कोरोना से बचने के लिए मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) का होना बहुत ज़रूरी होता है और अच्छी इम्यूनिटी के लिए प्राकृतिक तथा जैविक वस्तुओं का सेवन आवश्यक है। प्रकृति हमें हर मौसम के फल, सब्जियाँ देती है जो हमारे शरीर को उस मौसम की बीमारियों के प्रति प्रतिरोधी बनाती है, वह हमारे शरीर में उसके विरुद्ध पहले ही एंटीबॉडीज़ का निर्माण कर देती है। लेकिन आधुनिक जीवनशैली की ओर हम जितना ही बढ़ते हैं, प्रकृति से उतने ही दूर हो जाते हैं। नींबू, संतरे, सेब, आम के प्राकृतिक सेवन के स्थान पर Processed और Preservative युक्त पैक्ड जूस कहाँ से इम्यूनिटी दे सकते हैं। पाचन ठीक कर शरीर को ऊर्जा देने का जो काम गेहूँ, मक्का, चना इत्यादि अनाज कर सकते हैं वह काम भला पिज़्ज़ा और ब्रेड के सड़े आटे से कैसे हो सकता है? जिन गुणकारी मसालों में इम्यूनिटी का वरदान था वह बाज़ार की स्वार्थी मिलावटखोरी की भेंट चढ़ गया।

इतना ही नहीं हमने प्राणदायिनी वायु को भी आधुनिक बनाने की कोशिश की। एसी के बनावटी अनुकूलन में हमने प्राकृतिक और जीवन तत्वों से भरपूर खुले वातावरण को बिलकुल ही त्याग दिया। वायु न सिर्फ प्राणदायिनी ऑक्सीजन देती है बल्कि नाइट्रोजन, ऑर्गन, निऑन जैसे तत्व शरीर को दृढ़ता और प्रतिरोधकता देने वाले तत्व भी प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त वायु में कई जीवाणु भी मौजूद होते हैं जो हमारे शरीर में जाकर विषाणुओं का नाश करने में स्वतः ही सक्षम होते हैं।

बनावटी जीवनशैली अपनाने के चक्कर में हम इन सभी अनमोल प्राकृतिक उपहारों को छोड़ते चले गए और अपने ही शरीर को हानि पहुँचाते रहे। यही कारण है कि आज जितनी अधिक आधुनिक और कथित सभ्य मानव बिरादरी थी उसे उतना ही अधिक नुकसान झेलना पड़ा है। वरना क्या कारण है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में या मेहनतकश वर्ग में कोरोना का प्रसार नहीं हो सका है, जबकि पिछले दिनों इन सामान्य वर्ग के लोगों की भारी भीड़ जुटी थी और जिसने सरकार की चिंता बढ़ा दी थी। कारण साफ़ है कि यह वर्ग प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रहता है और इसी कारण इनकी प्रतिरोधक क्षमता भी मज़बूत रहती है।

एक और उदाहरण हिमालयी क्षेत्रों का लें जहाँ इस महामारी ने अब तक अपने पैर नहीं फैलाये हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले आज भी प्राकृतिक साहचर्य पर भरोसा करते हैं। यहाँ प्रकृति के तत्वों का उसी रूप में प्रयोग करने की स्वस्थ परंपरा आज भी कायम है। इसके अतिरिक्त वे स्वच्छ प्राकृतिक वायु और प्रदूषणरहित तथा खनिजयुक्त प्राकृतिक जल का सेवन करते हैं। आज भी इन क्षेत्रों में इन प्राकृतिक तत्वों तथा स्रोतों की पूजा की जाती है जो हमारी सनातनी सभ्यता का अनिवार्य अंग है परन्तु जिसे हमने भुला दिया है।

पिछले एक महीने में प्रकृति की सेहत में जो अभूतपूर्व सुधार हुआ है वह भी मानव समाज की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है। हमारी वायु, जल स्रोत, वनस्पति सब जैसे आनंद का अनुभव कर रहे हैं। पृथ्वी मानो संकेत कर रही हो कि हे मानव मुझे अपने वास्तविक स्वरुप में लौटने दो, मुझे स्वच्छ रखो और उसका उपभोग करो ताकि मैं तुम्हारा जीवन आनंद से भर सकूँ। मेरी गोद में तुम्हारे लिए अमृत का खज़ाना है इसका लाभ उठाओ, इसे नष्ट मत करो।

अब भी समय है यदि हम अपनी अकर्मण्यता का त्याग कर स्वाभाविक जीवनशैली की ओर नहीं लौटे तो इससे भी भयंकर परिणाम हो सकते हैं। प्रति 10 वर्षो में कोई न कोई घातक विषाणु मनुष्य के जीवन में विष घोल रहा है, क्या पता प्रकृति का अगला कोई दूत हमें ये अवसर भी न दे। वैसे जिस बुरे दौर से इस धरती के मनुष्य गुज़र रहे हैं उससे एक उम्मीद तो जगती है कि शायद अब मानव बनावटी जीवन को छोड़कर स्वस्थ और प्राकृतिक जीवन अपनाना बेहतर समझे। और यदि ऐसा हो सके तो यह मानव जीवन का भविष्य अगली कुछ सदियों के लिए सुरक्षित कर देगा।

-निषेध कुमार कटियार ‘हलीम’

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

'हलीम' उवाच

तबलीगी मरकज


दरअसल ये जिहादी संगठनों का ही B group है जिसे धर्म प्रचार का नकाब पहना दिया गया है।

जाँच एजेंसियों का शक अब सही साबित होता जा रहा है। हरेक तबलीगी नेता का बेस कनेक्शन कोई न कोई आतंकी संगठन ही निकल रहा है। ये भारत या दूसरे देशों में प्रवेश के लिए तबलीगी पहचान का इस्तेमाल करते हैं और दुनिया की नज़रों में अपनी यात्रा का उद्देश्य मोहम्मद के सिद्दांतों का प्रचार करना ज़ाहिर करते हैं। इनके द्वारा देश भर में मरकत (सभाएं) आयोजित की जाती हैं और उनकी आड़ में मुस्लिम समाज के युवाओं में जिहादी बीज बोकर उन्हें  'स्लीपर सेल' बनाया जाता है।

हाल ही में CAA जैसे प्रयासों से बौखलाकर बड़ी संख्या में इनके नेता विदेशों से भारत में आये क्योंकि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही जिस तेज़ी से एक के बाद एक 370, राम मंदिर, CAA जैसे निर्णय लिए गए और इनके भारतीय एजेंटों को निस्तेज कर दिया गया उससे इन्हें अपनी ज़मीन खिसकती महसूस हुई और इसके लिए उन्होंने CAA के विरोध को अवसर बनाते हुए देश के मुस्लमान वर्ग को एक आंदोलन के लिए खड़ा करने की योजना तैयार की।

उनकी इस योजना का व्यापक असर देश भर में और दिल्ली में हुए विरोध, प्रदर्शनों, दंगों में दिखाई दिया।

बीच में कोरोना के आ जाने से लॉक डाउन के कारण इन्हें अपनी कार्रवाही कुछ समय के लिए स्थगित करनी पड़ी और ये लॉक डाउन ख़त्म होने का इंतज़ार करने लगे, जबकि इनके पास वापस जाने का पर्याप्त समय था। जब बार बार प्रशासन का निजामुद्दीन खाली करने का दबाव बढ़ा तो इन्होंने जगह खाली की लेकिन यहाँ भी ये बाज़ नहीं आये।

इनके खुराफाती दिमाग की तारीफ देखिये इन्होंने उस संकट को भी एक अवसर बना लिया और अपने अनुयायियों को इसे ही जिहाद के लिए एक बेहतर रास्ता बनाने को कहा। इन्होंने संक्रमित मौलाना से कई लोगों के संक्रमित होने का इंतज़ार किया और उन्हें सिखाया कि कैसे 'थूककर' या 'करीब जाकर' चिल्लाते हुए वायरस को फैला कर जिहाद शुरू किया जा सकता है।

हाल ही में कई वीडियो आये हैं जिनमें लोगों को किसी मस्जिद में एक साथ 'छींककर' या 'बर्तन जूठे करते हुए' (इन्हीं बर्तनों में और लोगों को खिलाने के लिए) देखा गया है। इनके पास ऐसा कोई लक्ष्य नहीं है कि सिर्फ हिंदुओं को नुकसान पहुँचाना है, बल्कि ये तो किसी भी सूरत में तबाही मचाना चाहते हैं ताकि देश बर्बाद हो और उसका सीधा इल्जाम सरकार पर आये और ये वापस अपनी ताकत बढ़ा सकें।

मकसद बेहद साफ़ और दूरदर्शी है, हमें अब भी संभल जाना चाहिए और चौकन्ना रहना चाहिए। देखिये कहीं आप के आसपास तो कोई ऐसा संदिग्ध नहीं?? अगर है तो तुरंत प्रशासन को सूचना दीजिये।
धन्यवाद, जय हिंद।

आपका शुभचिंतक-
निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

दरअसल ये जिहादी संगठनों का ही B group है जिसे धर्म प्रचार का नकाब पहना दिया गया है।

जाँच एजेंसियों का शक अब सही साबित होता जा रहा है। हरेक तबलीगी नेता का बेस कनेक्शन कोई न कोई आतंकी संगठन ही निकल रहा है। ये भारत या दूसरे देशों में प्रवेश के लिए तबलीगी पहचान का इस्तेमाल करते हैं और दुनिया की नज़रों में अपनी यात्रा का उद्देश्य मोहम्मद के सिद्दांतों का प्रचार करना ज़ाहिर करते हैं। इनके द्वारा देश भर में मरकत (सभाएं) आयोजित की जाती हैं और उनकी आड़ में मुस्लिम समाज के युवाओं में जिहादी बीज बोकर उन्हें  'स्लीपर सेल' बनाया जाता है।

हाल ही में CAA जैसे प्रयासों से बौखलाकर बड़ी संख्या में इनके नेता विदेशों से भारत में आये क्योंकि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के शुरू होते ही जिस तेज़ी से एक के बाद एक 370, राम मंदिर, CAA जैसे निर्णय लिए गए और इनके भारतीय एजेंटों को निस्तेज कर दिया गया उससे इन्हें अपनी ज़मीन खिसकती महसूस हुई और इसके लिए उन्होंने CAA के विरोध को अवसर बनाते हुए देश के मुस्लमान वर्ग को एक आंदोलन के लिए खड़ा करने की योजना तैयार की।

उनकी इस योजना का व्यापक असर देश भर में और दिल्ली में हुए विरोध, प्रदर्शनों, दंगों में दिखाई दिया।

बीच में कोरोना के आ जाने से लॉक डाउन के कारण इन्हें अपनी कार्रवाही कुछ समय के लिए स्थगित करनी पड़ी और ये लॉक डाउन ख़त्म होने का इंतज़ार करने लगे, जबकि इनके पास वापस जाने का पर्याप्त समय था। जब बार बार प्रशासन का निजामुद्दीन खाली करने का दबाव बढ़ा तो इन्होंने जगह खाली की लेकिन यहाँ भी ये बाज़ नहीं आये।

इनके खुराफाती दिमाग की तारीफ देखिये इन्होंने उस संकट को भी एक अवसर बना लिया और अपने अनुयायियों को इसे ही जिहाद के लिए एक बेहतर रास्ता बनाने को कहा। इन्होंने संक्रमित मौलाना से कई लोगों के संक्रमित होने का इंतज़ार किया और उन्हें सिखाया कि कैसे 'थूककर' या 'करीब जाकर' चिल्लाते हुए वायरस को फैला कर जिहाद शुरू किया जा सकता है।

हाल ही में कई वीडियो आये हैं जिनमें लोगों को किसी मस्जिद में एक साथ 'छींककर' या 'बर्तन जूठे करते हुए' (इन्हीं बर्तनों में और लोगों को खिलाने के लिए) देखा गया है। इनके पास ऐसा कोई लक्ष्य नहीं है कि सिर्फ हिंदुओं को नुकसान पहुँचाना है, बल्कि ये तो किसी भी सूरत में तबाही मचाना चाहते हैं ताकि देश बर्बाद हो और उसका सीधा इल्जाम सरकार पर आये और ये वापस अपनी ताकत बढ़ा सकें।

मकसद बेहद साफ़ और दूरदर्शी है, हमें अब भी संभल जाना चाहिए और चौकन्ना रहना चाहिए। देखिये कहीं आप के आसपास तो कोई ऐसा संदिग्ध नहीं?? अगर है तो तुरंत प्रशासन को सूचना दीजिये।
धन्यवाद, जय हिंद।

आपका शुभचिंतक-
निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

शनिवार, 28 मार्च 2020

'हलीम' उवाच

हिंदी भाषा का विकास


'हिन्दी' वास्तव में फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- हिन्दी का या हिंद से संबंधित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु (सिंध- पश्चिमी लोगों के लिए सिन्धु नदी के पार का देश) से हुई है। ईरानी भाषा में 'स' का उच्चारण 'ह' किया जाता था। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द संपूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा । इसी 'हिन्द' से हिन्दी शब्द बना। 

आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। वैदिक भाषा में वेद, संहिता एवं उपनिषदों-वेदांत का सृजन हुआ है। वैदिक भाषा के साथ-साथ ही बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता है। संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली वैदिककालीन भाषाओं से माना जाता है। अनुमानत: ८ वीं.शताब्दी ई.पू. में इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था। संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, अश्वघोष, माघ, भवभूति, विशाख, मम्मट, दंडी तथा श्रीहर्ष आदि संस्कृत की महान विभूतियाँ है। इसका साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है।

संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते 500 ई.पू. के बाद तक काफ़ी बदल गई, जिसे 'पाली' कहा गया। महात्मा बुद्ध के समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही। पहली ईसवी तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे 'प्राकृत' की संज्ञा दी गई। इसका काल पहली ई. से 500 ई. तक है।
पाली की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषाएँ- पश्चिमी, पूर्वी, पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी, अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, जिन्हें मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड तथा अर्धमागधी भी कहा जा सकता है।

आगे चलकर प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएँ प्रतिष्ठित हुईं। इनका समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा साहित्य के मुख्यत: दो रूप मिलते हैं- पश्चिमी और पूर्वी। अनुमानत: 1000 ई. के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ। अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ। आधुनिक आर्य भाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी है, का जन्म 1000 ई.के आसपास ही हुआ था, किंतु उसमें साहित्य रचना का कार्य 1150 या इसके बाद आरंभ हुआ।

अनुमानत: तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ, यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते हैं। आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है -

            अपभ्रंश                                आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा

              पैशाची                                         लहंदा, पंजाबी
              ब्राचड़                                           सिन्धी
              महाराष्ट्री                                     मराठी।
              अर्धमागधी                                   पूर्वी हिन्दी।
              मागधी                                         बिहारी, बंगला, उड़िया, असमिया।
              शौरसेनी                                       पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव अपभ्रंश के अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी रूपों से हुआ है।

हिन्दी सभी भारतीय आर्य भाषाओं की बड़ी बहन है और सबसे अधिक जनसमूह द्दारा बोली-समझी जाती है। हिन्दी की तीन कालक्रमिक स्थितियाँ हैं-- 1) आदिकाल (सन् 1000 से 1500 ई.) 2) मध्यकाल (सन् 1500 से 1800 ई.) 3) आधुनिक काल (सन् 1800 से आज तक) 

1) आदिकाल:- आधुनिक आर्यभाषा हिन्दी का आदिकाल अपभ्रंश तथा प्राकृत से अत्यधिक प्रभावित था। आदिकालीन नाथों और सिध्दों ने इसी भाषा में धर्म प्रचार किया था। इस काल में हिन्दी में मुख्य रूप से वही ध्वनियाँ मिलती हैं जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं। अपभ्रंश के अलावा आदिकालीन हिन्दी में 'ड़', 'ढ़' आदि ध्वनियाँ आई हैं। मुसलमान शासकों के प्रभाव से अरबी तथा फारसी के कुछ शब्दों के कारण भी कुछ नये व्यंजन- ख, ज, फ, आदि आ गये। ये व्यंजन अपभ्रंश में नहीं मिलते थे। अपभ्रंश के तीन लिंग थे। किन्तु प्राचीन हिन्दी में नपुंसक लिंग समाप्त हो गया। प्राचीन काल में चारण भाटों ने इसी भाषा में डिंगल साहित्य अर्थात् 'रासो' ग्रंथों का निर्माण किया। 

2) मध्यकाल:- इस काल में अपभ्रंश का प्रभाव लगभग समाप्त हो गया और हिन्दी की तीन प्रमुख बोलियाँ विशेषकर अवधी, ब्रज तथा खड़ी बोली स्वतन्त्र रूप से प्रयोग में आने लगी । साहित्यिक दृष्टि से इस युग में मुख्यत: ब्रज और अवधी में साहित्य निर्माण हुआ। कृष्णभक्ति शाखा के संत कवियों ने ब्रज भाषा में अपने ग्रन्थों का निर्माण किया तथा रामभक्ति शाखा के कवियों ने अवधी भाषा में अपनी रचनाओं का निर्माण किया। इसके साथ ही प्रेमाश्रयी शाखा के सूफी कवियों ने भी अवधी में अपनी रचनाएँ लिखीं। ब्रज तथा अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग इस युग में काफी पनपा। मुसलमान शासकों के प्रभाव से खड़ी बोली में अरबी तथा फारसी शब्द प्रचलित हुए और उसके विकास का श्रीगणेश हुआ। 

3) आधुनिक काल:- अठारहवीं शती में ब्रज तथा अवधी भाषा की शक्ति तथा प्रभाव क्षीण होता गया और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ से ही खड़ी बोली का मध्यप्रदेश की हिन्दी पर भारी प्रभाव पड़ा। बोलचाल, राजकाज तथा साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली हिन्दी का व्यापक पैमाने पर प्रयोग होने लगा था। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से हिन्दी भाषा के पाँच उपभाषा वर्ग माने गये हैं- 

1) पश्चिमी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत कौरवी (खड़ी बोली), बागरू (हरियाणवी), ब्रज, कन्नौजी एवं बुंदेली। 

2) पूर्वी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी बोलियाँ। 

3) बिहारी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत भोजपुरी, मैथिली, मगही बोलियाँ।  
भारतीय बोलियों का क्षेत्र 

4) राजस्थानी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत मारवाड़ी, जयपुरी (हाड़ोती), मेवाती और मालवी आदि बोलियाँ आती हैं। 

5) पहाड़ी हिन्दी-- इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से गढ़वाली तथा कुमाउँनी बोलियाँ आती हैं।