यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

नारी सुरक्षा के लिये भारत मे बनते कानून और उनकी वास्तविकता- against

भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को सामान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39 (घ)) की गारंटी देता है. इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है (अनुच्छेद 15(3)), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51(ए)(ई)) और साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियाँ सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है. (अनुच्छेद 42)].[25]
भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी. महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था. एक थाने (पुलिस स्टेशन) में मथुरा नामक युवती के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिसकर्मियों के बरी होने की घटना 1979-1980 में एक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी. विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से कवर किया गया और सरकार को साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता को संशोधित करने और हिरासत में बलात्कार की श्रेणी को शामिल करने के लिए मजबूर किया गया.[25] महिला कार्यकर्ताएं कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेद, महिला स्वास्थ्य और महिला साक्षरता जैसे मुद्दों पर एकजुट हुईं.
1992-93 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में केवल 9.2% घरों में ही महिलाएं मुखिया की भूमिका में हैं. हालांकि गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारों में लगभग 35% को महिला-मुखिया द्वारा संचालित पाया गया है.[37]
हालांकि भारत में महिला साक्षरता दर धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन यह पुरुष साक्षरता दर से कम है. लड़कों की तुलना में बहुत ही कम लड़कियाँ स्कूलों में दाखिला लेती हैं और उनमें से कई बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं.[25] 1997 के नेशनल सैम्पल सर्वे डेटा के मुताबिक केवल केरल औरमिजोरम राज्यों ने सार्वभौमिक महिला साक्षरता दर को हासिल किया है. ज्यादातर विद्वानों ने केरल में महिलाओं की बेहतर सामाजिक और आर्थिक स्थिति के पीछे प्रमुख कारक साक्षरता को माना है.[25]
अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम (एनएफई) के तहत राज्यों में 40% केंद्र और केन्द्र शासित प्रदेशों में 10% केंद्र विशेष रूप से महिलाओं के लिए आरक्षित हैं.[कृपया उद्धरण जोड़ें] वर्ष 2000 तक लगभग 0.3 मिलियन (तीन लाख) एनएफई केन्द्रों द्वारा तकरीबन 7.42 मिलियन (70 लाख 42 हज़ार) बच्चों को सेवा दी जा रही थी जिनमें से से लगभग 0.12 मिलियन (12 लाख) विशेष रूप से लड़कियों के लिए थे.[कृपया उद्धरण जोड़ें] शहरी भारत में लड़कियाँ शिक्षा के मामले में लड़कों के लगभग साथ-साथ चल रही हैं. हालांकि ग्रामीण भारत में लड़कियों को आज भी लड़कों की तुलना में कम शिक्षित किया जाता है.
अमेरिका के वाणिज्य विभाग की 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाओं की शिक्षा की एक मुख्य रुकावट अपर्याप्त स्कूली सुविधाएं (जैसे कि स्वच्छता संबंधी सुविधाएं), महिला शिक्षकों की कमी और पाठ्यक्रम में लिंग भेद हैं (ज्यादातर महिला चरित्रों को कमजोर और असहाय दर्शाया गया है.[38]
पुलिस रिकॉर्ड में महिलाओं के खिलाफ भारत में अपराधों का उच्च स्तर दिखाई पड़ता है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने 1998 में यह जानकारी दी थी कि 2010 तक महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की विकास दर जनसंख्या वृद्धि दर से कहीं ज्यादा हो जायेगी.[25] पहले बलात्कार और छेड़छाड़ के मामलों को इनसे जुड़े सामाजिक कलंक की वजह से कई मामलों को पुलिस में दर्ज ही नहीं कराया जाता था. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज किये गए अपराधों की संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई है.[25]
1990 में महिलाओं के विरुद्ध दर्ज की गयी अपराधों की कुल संख्या का आधा हिस्सा कार्यस्थल पर छेड़छाड़ और उत्पीड़न से संबंधित था।[25]लड़कियों से छेड़छाड़ (एव टीजिंग) पुरुषों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न या छेड़छाड़ के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक चालबाज तरकीब (युफेमिज्म) है। कई कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के लिए "पश्चिमी संस्कृति" के प्रभाव को दोषी ठहराते हैं। विज्ञापनों या प्रकाशनों, लेखनों, पेंटिंग्स, चित्रों या किसी एनी तरीके से महिलाओं के अश्लील प्रतिनिधित्व को रोकने के लिए 1987 में महिलाओं का अश्लील प्रतिनिधित्व (निषेध) अधिनियम पारित किया गया था।[44] 1997 में एक ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल में महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक मजबूत पक्ष लिया। न्यायालय ने शिकायतों से बचने और इनके निवारण के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी किया। बाद में राष्ट्रीय महिला आयोग ने इन दिशा-निर्देशों को नियोक्ताओं के लिए एक आचार संहिता के रूप में प्रस्तुत किया।[25]
1961 में भारत सरकार ने वैवाहिक व्यवस्थाओं में दहेज़ की मांग को अवैध करार देने वाला दहेज निषेध अधिनियम पारित किया.[45] हालांकि दहेज-संबंधी घरेलू हिंसा, आत्महत्या और हत्या के कई मामले दर्ज किये गए हैं. 1980 के दशक में कई ऐसे मामलों की सूचना दी गयी थी.[39]
1985 में दहेज निषेध (दूल्हा और दुल्हन को दिए गए उपहारों की सूचियों के रख-रखाव संबंधी) नियमों को तैयार किया गया था.[46] इन नियमों के अनुसार दुल्हन और दूल्हे को शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. हालांकि इस तरह के नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है.
1997 की एक रिपोर्ट[47] में यह दावा किया गया था कि दहेज़ के कारण प्रत्येक वर्ष कम से कम 5,000 महिलाओं की मौत हो जाती है और ऐसा माना जाता है कि हर दिन कम से कम एक दर्जन महिलाएं जान-बूझकर लगाई गयी "रसोईघर की आग" में जलाकर मार दी जाती हैं. इसके लिए उपयोग किया जाने वाला शब्द है "दुल्हन की आहुति" (ब्राइड बर्निंग) और स्वयं भारत में इसकी आलोचना की जाती है. शहरी शिक्षित समुदाय के बीच इस तरह के दहेज़ उत्पीड़न के मामलों में काफी कमी आई है.
हालांकि 1860 में बाल विवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था लेकिन आज भी यह एक आम प्रथा है.[48]
यूनिसेफ की "स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन-2009" की रिपोर्ट के अनुसार 20-24 साल की उम्र की भारतीय महिलाओं के 47% की शादी 18 साल की वैध उम्र से पहले कर दी गयी थी जिसमें 56% महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों से थीं.[
घरेलू हिंसा की घटनाएं निम्न स्तरीय सामाजिक-आर्थिक वर्गों (एसईसी) में अपेक्षाकृत अधिक होती हैं.[कृपया उद्धरण जोड़ें] घरेलू हिंसा कानून, 2005 से महिलाओं का संरक्षण 26 अक्टूबर, 2006 को अस्तित्व में आया.
भारत में मातृत्व संबंधी मृत्यु दर दुनिया भर में दूसरे सबसे ऊंचे स्तर पर है.[16] देश में केवल 42% जन्मों की निगरानी पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा की जाती है. ज्यादातर महिलाएं अपने बच्चे को जन्म देने के लिए परिवार की किसी महिला की मदद लेती हैं जिसके पास अक्सर ना तो इस कार्य की जानकारी होती है और ना ही माँ की जिंदगी खतरे में पड़ने पर उसे बचाने की सुविधाएं मौजूद होती हैं.[25] यूएनडीपी मानव विकास रिपोर्ट (1997) के अनुसार 88% गर्भवती महिलाएं (15-49 वर्ष के आयु वर्ग में) रक्ताल्पता (एनीमिया) से पीड़ित पायी गयी थीं.[37]
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत महिलाओं के पास अपनी प्रजनन क्षमता पर थोड़ा या कोई नियंत्रण नहीं होता है. महिलाओं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के पास गर्भनिरोध के सुरक्षित एवं आत्म-नियंत्रित तरीके उपलब्ध नहीं होते हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली नसबंदी जैसे स्थायी तरीकों या आईयूडी जैसे लंबी-अवधि के तरीकों पर जोर देती है जिसके लिए बार-बार निगरानी की जरूरत नहीं होती है. कुल गर्भनिरोधक उपायों में 75% से अधिक नसबंदी होती है जिसमें महिला नसबंदी कुल नसबंदी में तकरीबन 95% तक होती है.[25]
3वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के अनुसार सभी निर्वाचित स्थानीय निकाय अपनी सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं. हालांकि विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है, इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी प्रशासन और निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है.[25]

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अपनी प्रतिक्रिया दें।