यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

दहेज उत्पीड़न से संबंधित कानून का हाल के दिनों में जबर्दस्त दुरुपयोग हो रहा है। लोगों के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन हो रहा है। कई बार धारा-498ए के जरिए उगाही तक की जाती है। कोर्ट को पता है कि यह लीगल टेररिजम की तरह है।

ये टिप्पणी अदालत ने दहेज उत्पीड़न के एक मामले में सास, ससुर, ननद, देवर और देवर की महिला फ्रेंड को आरोपमुक्त करते हुए की। अडिशनल सेशन जज कामिनी लॉ ने कहा कि सेक्शन 498ए (दहेज उत्पीड़न) उगाही, करप्शन और मानवाधिकार के उल्लंघन का जरिया बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे कानूनी आतंकवाद (लीगल टेररिजम) की संज्ञा देते हुए कहा था कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। यह कानून बदला लेने और वसूली के लिए नहीं, गलत लोगों को सजा दिलाने के लिए है। कई बार पीड़िता गुमराह होकर तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। इससे जिन लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता, उन्हें भी आरोपी बना दिया जाता है। जैसे इस मामले में किया गया। कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता महिला शादी के बाद 12 दिन ही ससुराल में रही और इस दौरान उसने सभी को फंसाने की कोशिश की। उसने देवर की महिला दोस्त को भी नहीं छोड़ा। भला देवर की दोस्त दहेज के लिए कैसे इंट्रेस्टेड हो सकती है।

जज कामिनी लॉ ने कहा कि निजी मकसद पूरा करने के लिए अदालतें प्लैटफॉर्म नहीं बन सकतीं। यह कोर्ट की ड्यूटी है कि वह सुनिश्चित करे कि पति की गलती के कारण उसके रिश्तेदारों को न फंसाया जा सके।
अनुच्छेद 39 राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के कुछ सिद्धांत तय करता है, जिनमें सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना, स्त्री और पुरुषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन, उचित कार्य दशाएं, कुछ ही लोगों के पास धन तथा उत्पादन के साधनों के संकेंद्रन में कमी लाना और सामुदायिक संसाधनों का “सार्वजनिक हित में सहायक होने” के लिए वितरण करना शामिल हैं।[81] ये धाराएं, राज्य की सहायता से सामाजिक क्रांति लाकर, एक समतावादी सामाजिक व्यवस्था बनाने तथा एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के संवैधानिक उद्देश्यों को चिह्नांकित करती हैं और इनका खनिज संसाधनों के साथ-साथ सार्वजनिक सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण को समर्थन देने के लिए उपयोग किया गया है।[
चायती राज में प्रत्येक स्तर पर कुल सीटों की संख्या की एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं, बिहार के मामले में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।[110][111] जम्मू एवं काश्मीर तथा नागालैंड को छोड़ कर सभी राज्यों और प्रदेशों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया है।[104] भारत की विदेश नीति निदेशक सिद्धांतों से प्रभावित है। भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र के शांति कायम करने के 37 अभियानों में भाग लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग दिया है।[112]
1985-1986) ने भारत में एक राजनीतिक तूफान भड़का दिया था जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक मुस्लिम महिला शाह बानो जिसे 1978 में उसके पति द्वारा तलाक दे दिया गया था, सभी महिलाओं के लिए लागू भारतीय विधि के अनुसार अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने की हकदार थी। इस फैसले ने मुस्लिम समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी जिसने मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू करने की मांग की और प्रतिक्रिया में संसद ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित कर दिया।[113] इस अधिनियम ने आगे आक्रोश भड़काया, न्यायविदों, आलोचकों और नेताओं ने आरोप लगाया कि धर्म या लिंग के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समानता के मौलिक अधिकार की विशिष्ट धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए अवहेलना की गई थी। 
सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं हैं. वे पारिश्रमिक और कार्यस्थल पर अपनी स्थिति के मामले में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी पर हैं.
ग्रामीण भारत में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में कुल महिला श्रमिकों के अधिक से अधिक 89.5% तक को रोजगार दिया जाता है.[37] कुल कृषि उत्पादन में महिलाओं की औसत भागीदारी का अनुमान कुल श्रम का 55% से 66%% तक है. 1991 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में डेयरी उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी कुल रोजगार का 94% है. वन-आधारित लघु-स्तरीय उद्यमों में महिलाओं की संख्या कुल कार्यरत श्रमिकों का 51% है.[37]
श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ सबसे प्रसिद्ध महिला व्यापारिक सफलता की कहानियों में से एक है. 2006 में भारत की पहली बायोटेक कंपनियों में से एक - बायोकॉन की स्थापना करने वाली किरण मजूमदार-शॉ को भारत की सबसे अमीर महिला का दर्जा दिया गया था. ललिता गुप्ते और कल्पना मोरपारिया (दोनों भारत की केवल मात्र ऐसी महिला व्यवासियों में शामिल हैं जिन्होंने फ़ोर्ब्स की दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में अपनी जगह बनायी है) भारत के दूसरे सबसे बड़े बैंक, आईसीआईसीआई बैंक को संचालित करती हैं.[40]
against--( महिलाओं की सुरक्षा के कानूनों के कमजोर कार्यान्वयन के कारण उन्हें आज भी ज़मीन और संपत्ति में अपना अधिकार नहीं मिल पाता है.[41] वास्तव में जब जमीन और संपत्ति के अधिकारों की बात आती है तो कुछ क़ानून महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं.
1956 के दशक के मध्य के हिन्दू पर्सनल लॉ (हिंदू, बौद्ध, सिखों और जैनों पर लिए लागू) ने महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया. हालांकि बेटों को पैतृक संपत्ति में एक स्वतंत्र हिस्सेदारी मिलती थी जबकि बेटियों को अपने पिता से प्राप्त संपत्ति के आधार पर हिस्सेदारी दी जाती थी. इसलिए एक पिता अपनी बेटी को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से को छोड़कर उसे अपनी संपत्ति से प्रभावी ढंग से वंचित कर सकता था लेकिन बेटे को अपने स्वयं के अधिकार से अपनी हिस्सेदारी प्राप्त होती थी. इसके अतिरिक्त विवाहित बेटियों को, भले ही वह वैवाहिक उत्पीड़न का सामना क्यों ना कर रही हो उसे पैतृक संपत्ति में कोई आवासीय अधिकार नहीं मिलता था. 2005 में हिंदू कानूनों में संशोधन के बाद महिलाओं को अब पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाते हैं.[42])
2013 अक्टूबर/नवंबर में भारत की लगभग आधे बैंक व वित्त उद्योग की अध्यक्षता महिलाओं के हाथ में थी।

भारत में पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से दस लाख से अधिक महिलाओं ने सक्रिय रूप से राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया है.[41] 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के अनुसार सभी निर्वाचित स्थानीय निकाय अपनी सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं. हालांकि विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है, इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी प्रशासन और निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है.[25]

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अपनी प्रतिक्रिया दें।