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शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

'हलीम' उवाच


मोहब्बत का धोखा वो खा ही गया
बहुत जिस्म के खेल खेला था वो।

पिघलता रहा जिस्म में गैर के
मन के शिवाले की मूरत था जो।

हुए खाक सपने लुटा मन का आंगन
बड़ी शिद्दतों से सजाया था जो।

वही दोस्त उसका लुटेरा हुआ
वादे मोहब्बत के करता था जो।

बरसे न अब उसपे बादल कोई
मुद्दत की प्यासी पड़ी रेत जो।

चाहत भरी एक नज़र को तरसती
निशानी किसी की ये सोई है जो।

कोसूँ उसे या मैं खुद पर हँसूँ
बिगड़ी हुई आज सूरत है जो।

सफ़र जिंदगानी है मुश्किल 'हलीम'
न लूटो उसे तुमपे कुर्बां हो जो।

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

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