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सोमवार, 12 दिसंबर 2011

'हलीम' उवाच

अभी तनिक दिन बीते जब
घर का हर कोना भाता था,
आज मगर न बात है वो जो
तब खुशियाँ भर लाता था.

सर्दी में आँगन में बैठे
धूप सेंकने का वो सुख,
छिटक चाँदनी में नभ-दर्शन
अब रह रह कर देता है दुःख.

जहाँ खेलते थे हम सब
लड़ते चाचा से पिटते थे,
बाबा के संग खाना खाते
चिड़ियों को दाना देते थे.

एक दिवस फिर बाबा ने
ली अंतिम साँस उसी आँगन में,
अब तक कितनी आशाएं जीवन की
बिखर चुकीं उस आँगन में.

दीदी की शादी पर जब
कई हाथों में मेहंदी लगती,
और दीवाली में छत से
लेकर दीवारें तक सजतीं.

वो दर वो दीवारें और आंगन
सब आज पराया लगता है,
पिछली बातें याद करूँ
तो दिल मेरा भर आता है.

निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

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