'हलीम' उवाच
उफनाया नदियोँ का सीना, गाँवोँ का सब सुख, घर छीना।
ऐसी हुई तबाही मच गया हाहाकार, A. C. कमरोँ मेँ विचार करती सरकार।
भेजे राशन सेना पहुँचाए, चंद घूँट प्यासोँ को पिलाए।
संकट मेँ जनता चिल्लाए सरकार निकम्मी, इंतजाम न करे दिखाए ढोँग अधर्मी।
इक सपना था अटल का बोले नदियाँ जोड़ो, बाढ़ का पानी सूखे की धरती पर मोड़ो।
हो न सका साकार तभी तो है ये सूरत, देर भले लगती पर बनती सुंदर मूरत।
ज्ञान चछु को खोल अरे ओ अंधे मानव, मार जो भीतर बैठा तेरे स्वार्थ का दानव।
मत छोटी-छोटी सुविधाओँ मेँ उलझ यूँ पगले, दूर की कौड़ी सोच देश की हालत बदले।
कितना अपना पैसा अकाल बाढ़ खा जाती, यह पूँजी क्या तेरे हित मेँ काम न आती?
आवाज़ उठा अपनी खुद को दे इतनी तू ताकत, यह तंत्र विवश हो सुने तेरे आगे हो नतमस्तक।
सौ करोड़ की जनता पर कोई क्यूँ रौब जमाए, सब मिल जाओ चुनो उसे जो अपनी न चलाए।
-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
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