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शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

'हलीम' उवाच


जश्न-ए-आज़ादी में...

आइये महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को,
जश्न-ए-आज़ादी में तब मैं ले चलूँगा आपको.

मर गए लाखों-करोड़ों और  भी मरने अभी,
क्या चुका सकते हो कीमत जान की उनकी कभी.

चौंसठ बरस से ढोंग जो अब तक सिखाते आये  हो,
अर्थ जीने का वतन में फिर भी समझ न पाए हो.

मनुज अपने कर्म से डगमग भटकता खो रहा,
स्वर्ग जैसी भूमि पर क्या-क्या न अधरम हो रहा.

देश में हर रोज़ पांचाली उघारी जा रही,
या अहिंसा की यहाँ पर नथ उतारी जा रही.

हैं तरसते जिस्म कितने एक लंगोटी के लिए,
बेचती है लाज औरत आज रोटी के लिए.

बिक गया हर हाथ संसद बन चुकी बाज़ार है,
हर तरफ नफरत बढ़ी हर हाथ में तलवार है.

धर्म नैतिकता के ठेकेदार सब बैठे जमा,
चोर बनता संत और मासूम झेले मुकदमा.

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को,
हर सियासत चाहने वालों को और सरकार को.

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आयें आज इस जश्न में,
'हिंद' का कैसे भला हो? तर्क दें इस प्रश्न में.

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
 

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