तबलीगी मरकज

शुक्रवार, 21 जून 2013

'हलीम' उवाच


घर चम्पा के फूल महकते

                (1)
अभी चाँद भी गया नहीं है,
सूरज छत पर उगा नहीं है;

पर माँ है कि जग रही है,
भोर का यौवन दिखा रही है;

देखो बेटा पेड़, परिंदे,
तितली, भौंरे, कीट, पतंगे,

मस्ती में सब आज चहकते,
घर चंपा के फूल महकते।


              (2)
मैं सुगंध के पीछे-पीछे,
आँखों को यूँ ही मींचे;

जब द्वार से बाहर आया,
उपवन को अद्भुत सा पाया;

दृश्य देख रह गया अचम्भित,
अनिल बह रहा स्वच्छ सुगन्धित;

कहाँ है वह देखूँ फिर मैंने सोचा आँख मसलते,
जिस चम्पा के फूल महकते।


                (3)
सारा उपवन खिला हुआ है,
'चन्द्र-सुधा' से धुला हुआ है;

अमलतास, आड़ू, गुलमोहर,
फैले जिन पर पुष्प मनोहर;
 
नींबू, आम, पपीता, जामुन,
महकें, नाचें, गाएँ फागुन;

मंद पवन के झोंकों से जो खड़ा है बीच लहकते,
उस पर चम्पा के फूल महकते।

                 (4)
चम्पा से हैं जुड़ी पुरानी यादें
दुःख की कुछ और सुहानी.

बाबूजी संग खेला करना,
चम्पा की डालों पर चढ़ना;

माँ जब भी चाहे नहलाना,
इसके पत्तों में छिप जाना.

छाया में इसकी किसी की बाँहों में थे बहकते,
घर चम्पा के फूल महकते।


               (5)
बरस हुए चम्पा को देखे,
लिखता रहा करम के लेखे;

आती याद जवानी अपनी,
थी मशहूर कहानी अपनी;

मुझ पर था चम्पई रंग चढ़ा,
जिसमें हूँ अब तक पला-बढ़ा;
 
उस छाया को छोड़ के क्यूँ सड़कों पर रहें सुलगते,
घर चम्पा के फूल महकते।

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
504 HIG रतनलाल नगर, कानपुर।

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