तबलीगी मरकज

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

'हलीम' उवाच



 आतंकवाद की तस्वीर

फिर कोई रात कहीं पर, सुलग जाए तो क्या,
ढेर लाशों के भी आज फिर से लग जाएँ तो क्या।
ऐसी सूरत का है कौन आज ये मुल्जिम कहिए।

आज हर एक तबीयत है बीमार यहाँ,
हर घड़ी में है दहशतों का बदखुमार यहाँ।
कोई इस मर्ज का माकूल तसफिया करिए।

वो जो पहलू में छुपा लाता है खंजर अपने,
हम मोहब्बत ही रहे पाले हैं अन्दर अपने।
कुछ तो ज़ख्मों का सिला उसको भी देकर रहिए।

अपने गुलशन को मिटाने में हैं कुछ फूल इसके,
घर उन्होंने ही जलाया है जो थे शम्मां उसके।
ऐसे मनहूस चिरागों को बुझाकर रखिए।


-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'

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